सोमवार, 5 अगस्त 2013

छोटे शहर इस तरह आहिस्ता आहिस्ता महानगरों में तब्दील हो रहे है की लोगों को जमीं का एक टुकड़ा  लेकर घर बनवाना अब अतीत का सपना होता जा रहा है। अपार्टमेंट में फ्लैट लेना तमाम लोगों की मज़बूरी बनती जा रही है।  इसी स्थिति को उधेरती  और सालती -कुछ शब्दों की कतरने _

पांव कमरे से निकाला तो मैं बाजार में था ,
है यह हसरत कि   मेरे घर का भी आँगन होता










मंगलवार, 9 जुलाई 2013

sher ek najar

कैसे कहूं की मुलाकात नहीं होती ,
मिलते है हर रोज , मगर बात नहीं होती .










































मंगलवार, 4 जून 2013

कहते है इन्सान भी पत्थर हो जाता है बिलकुल संवेदनहीन -पर क्या इन पत्थरों में कोई संवेदन नहीं होता- क्या हृदयहीन है ये पत्थर जो सदियों से धरती पर पड़े है. ----

नहीं समझाते है लोग / कभी भी भ्रमवश / कि  /
ह्रदय भी होता है इन पत्थरों का /
समझते  है- तम का कोष ,तिमिर का सहचर /
नहीं-नहीं जानते / नहीं समझते  है लोग /
ऐसा भी होता है / ऐसा भी है /
कई कई पत्थरों के अंतस में / आलोकित होती रहती है /
कनी  हीरे की /  हीरा  या हीरे का शुद्ध  रूप / कुछ भी / या दोनों /
किन्तु नियति की विडंबना / इन पत्थरों का भाग्य /
पारखी  दृष्टि की छुवन -स्पर्श /
पहचानती है आलोक / ऊर्जा / और 
इन पत्थरों की पीड़ा .

पत्थरों की पीड़ा

गुरुवार, 9 मई 2013

कहाँ आ गए हम 

बहुत दिनों के बाद मै लौटा हूँ . आप लोगों का गुनाहगार हो सकता हूँ .अति व्यस्तता के कारण  कुछ लिख नहीं सका . इस  बीच कई बार बनारस जाना पड़ा जहाँ मैंने  अपने जीवन का  २ २  साल गुजारा हूँ   . पर अब बनारस पहले जैसा नहीं रहा . भीड़  और प्रदूषण से अटा  पड़ा है काशी . गंगा साफ़ नहीं रही .
ये  पंक्तियाँ 
खाक भी जिस जमीं की पारस  है,शहर मशहूर वो  बनारस है  

मशहूर तो अब भी है पर वो खिचाव नहीं रहा . 


गुरुवार, 21 जुलाई 2011

ahankar se bache

मित्रों, लगभग ग्यारह महीनों बाद मैं आपके सामने फिर से आया हूँ  इस बीच अनेक थपेड़े सहे फिर भी जीवन पथ से डिगा नहीं. सच तो यह है कि जीवन जीने के लिए है अपने लिए नहीं दूसरों के लिए. अपने लिए तो पशु ही जीते है. 
 
आज हर व्यक्ति चाहता है कि उसका ह्रदय और मन शांत रहे परन्तु स्वभावतः ऐसा हो नहीं पाता. वस्तुतः यह अहंकार के कारण ही होता है . कोई व्यक्ति छोटा है  उससे अलगाव रहे तथा कोई काम छोटा है-हमारे करने लायक नहीं है-यह सब मन के भीतर उपस्थित अहंकार के फलस्वरूप है जिसके कारण मानसिक तनाव उत्पन्न होता है. पाश्चात्य शिक्षा पद्धति ने भारतीय समाज में अनेक तरह का भेद पैदा कर दिया है-अधिकारी, क्लर्क,चपरासी ,उच्च ,निम्न ,अमीर, गरीब जैसी संज्ञाओं को अपने मन में रखे लोग निरंतर अपने भविष्य को लेकर चिंतित रहतें हैं. हमारे समाज में पहले से ही धार्मिक एवं वैचारिक  रूप से अनेक भेद विद्यमान है. यही कारण है कि लोगों में तनाव बढ रहा है.
इस संसार में दुःख अधिक है जबकि सुख कम. अच्छे और भले लोग कम है जबकि स्वार्थी लोग ज्यादा-इसलिए अपनी कामनाओं कि सीमाएं समझने कि आवश्यकता है.भारतीय दर्शन कि विशेषता है कि वह सांसारिक पदार्थों में अधिक मोह न पालने की बात कहता है. अधिक संपर्क बनाने या सम्पति का सृजन करने से अपने मन में मोह तथा अहंकार का भाव पैदा होता है जिससे कालांतर में बुरे pariraam   स्वयं को भोगने पडतें है.
यह सच्चाई है कि आदमी कितना भी धन प्राप्त कर ले फिर भी उसमें यह भय बना रहता है कि वह कभी नष्ट न हो-चोरी न हो-वह चिंतित रहता है-निद्रा उसके लिए दुर्लभ हो जाती है-वह और संग्रह में लग जाता है फलतः उसका जीवन और कठिन हो जाता है. कहने का तात्पर्य यही है कि सब कुछ व्यक्ति को कभी प्राप्त नहीं हो सकता-यह प्राकृतिक नियम है. अतः जो कुछ भी प्राप्त हुआ है उसे लेकर मन में अहंकार नहीं होना चाहिए क्योंकि भौतिक  उपलब्धियां दैहिक होतीं है और देह के साथ ही समाप्त हो जातीं है.

सोमवार, 16 अगस्त 2010

chintan

१६ जुलाई के बाद जिदगी के अनछुए पहलुओं से रूबरू होना पड़ा. इस बीच परिस्थितिओं में काफी बदलाव हुआ. चिंतन को एक नयी दिशा प्राप्त हुई. यह जो विज्ञानं के द्वारा अनेक सुविधाएँ हमें  मिली हैं उसके उपयोग और दुरुपयोग पर सोचता रहा. आज के युग में आदमी इतना विवेकहीन हो सकता है , नैतिक रूप से इतना नीचे जा सकता है  , हमने-आपने कभी सोचा न होगा. आज बाजार में सब कुछ बिकता है और इस खरीद -फ़रोख्त में विचार भी शामिल हो गया है. किस बात को लेकर आज आदमी अपने पर गर्व करता है? धन संचय की यह जो जिजीविषा जन्म ले रही है वह आदमी को पतन की किस सीमा तक ले जाएगी सोचा नहीं जा सकता. पतनशील मार्ग को आदमी प्रगतिशील मार्ग मान रहा है आज. धरती का मानव इस जगह पहुँच जायेगा यह भगवान ने भी नहीं सोचा होगा. आप भी इस पर विचार कीजिये.

सोमवार, 12 जुलाई 2010

Science and philosophy


इस विषय पर चिंतन करने के पहले यदि मैं मान लू की आज के युग में सभी लोगों को कार्य रूप में विज्ञानं और दर्शन दोनों का अर्थ ज्ञात है तो अच्छा रहेगा क्योंकि किसी परिघटना की चर्चा करने पर सभी यह अंतर बताने को तत्पर रहतें है कि इस परिघटना का क्षेत्र विज्ञानं है या दर्शन. अतः इसका औचित्य देखने के लिए यह जरुरी है कि विज्ञानं और दर्शन के अर्थ, स्वरुप और उद्देश्य पर चिंतन किया जाये.
दर्शन का अर्थ है जिसके द्वारा देखा जाये. देखने का स्थूल साधन आँखें है. इस आँख रूपी इन्द्रिय द्वारा जो ज्ञान प्राप्त होता है वह ज्ञान ही दर्शन का अभिप्रेत देखा हुआ ज्ञान है. यह मत स्थूल दर्शनों का है. दुसरे सूक्ष्म दर्शनों का मत है कि कुछ वस्तुएं ऐसी भी है जो आँखों से नहीं देखी जा सकती, उनके लिए दृष्टि या तात्विक बुद्धि के दुसरे नाम प्रज्ञा चक्षु , ज्ञान चक्षु या दिव्य दृष्टि है. इस मत में दर्शन शब्द का अर्थ हुआ जिसके द्वारा ज्ञान प्राप्त किया जाये.
विज्ञानं और दर्शन दोनों का उद्देश्य होता है सत्य कि खोज. भौतिक जगत में व्यवस्था की सत्यता के विषय में जिज्ञासा करना ही विज्ञानं है. जिज्ञासा के कारण ही मनुष्य यह ज्ञान प्राप्त करता है कि भौतिक जगत में प्रकृति का व्यवहार कैसा है. विज्ञानी यह पता लगाता है कि प्रकृति कैसी है, वह ये नहीं खोजता कि ये ऐसी ही क्यों है. विज्ञानं का क्षेत्र है यह जानना कि कोई परिघटना क्या है-न कि यह जानना कि उसका स्वरुप क्या होना चाहिए. दुसरे शब्दों में कह सकते है कि विज्ञानं का अर्थ सृष्टि कि सब विशेषताओं और विविधताओं को जान लेना नहीं है, इसीलिए वैज्ञानिक मानसिकता में अनिश्चितता का स्थान प्रमुख होता है.
दर्शन का क्षेत्र हमारी अंतःकरण की व्यवस्था का अध्ययन एवं संवेदनशीलता का मूल्यांकन है. आतंरिक जगत में व्यवस्था का ज्ञान प्राप्त करना ही दर्शन है. यह संसार क्या है? ये जीवन-मृत्यु के बंधन क्या है? मैं क्या हूँ? इन सभी के मूल में अव्यक्त रहस्य को समझ लेना ही दर्शन है.
सृजन का प्रश्न :: विज्ञानं की उन्नति ने हमें बता दिया है की वह अपने में अपर्याप्त है क्योंकि विज्ञानीय विश्लेषण की पध्यती में हम कहीं भी पंहुच जाएँ पर अंतिम संश्लिष्ट और अखंड तत्त्व तक नहीं पंहुच सकेगे. उसे तत्त्व कहना भी भाषा की अपंगता है- वह है सत्य अर्थात जो है, अंतिम नितांत सनातन भाव से है.
आज जिस भीषण संकट में जगत अपने को अनुभव कर रहा है वह अपने को विज्ञानं के हाथों में सौप रहने के कारण. वह प्रकृति में और प्रकृति के साथ था लेकिन आज मानव को शांति का रास्ता नहीं मिल रहा है, दुःख से आहत है इसीलिए आज विश्व के विचारकों की एक बड़ी संख्या मानने लगा है की भौतिक साधनों से अशांति को मिटाया नहीं जा सकता. एटम को मानव ने भेद डाला है और एटमी शक्ति के आविष्कार ने उसे समर्थ बना डाला है की वह उससे अपने को और शेष सबको स्वाहा कर डाले. आज एटमी शस्त्रों का इतना भंडार उसके पास है की वह भूमंडल पर समूचे जीवन को बारम्बार नष्ट कर सकता है. पर सृजन ? यह प्रश्न उससे अलग है. निर्माण मानव के वश का है और अद्भुत चमत्कारी निर्माण विज्ञानं के फलस्वरूप हम अपने चारों तरफ देखतें भी है . लेकिन परखनली के प्रयोग के बाद भी यह संदिग्ध ही बना हुआ है की शिशु सृष्टि विज्ञानं के द्वारा हो सकती है. मैं मानता हूँ की और सब कुछ संभव है पर जीवन सृष्टि संभव नहीं है.
अहिंसा और हिंसा का द्वन्द :: अंतर्राष्ट्रीय स्तर के ख्यातिप्राप्त संत आचार्य रजनीश ने कहा था-हमने आदमी को वैज्ञानिक ढंग से पैदा करने के बारे में सोचा ही नहीं, अहिंसक आदमी विज्ञानं के जरिये पैदा किया जा सकता है-अहिंसा -अहिंसा सिखाने कि बहुत जरुरत नहीं है. विज्ञानं पर भगवानों को भी इस कदर भरोसा है तब वह अपने को सर्वशक्तिमान माने तो आश्चर्य क्या है.
अब आप सोचें- हिंसा कहाँ से? अमुक हार्मोन से- उसे कम कर दीजिये- हिंसा ख़त्म, बहुत सीधा नुस्खा है, पर अहिंसा नकार नहीं है इसलिए वह उतनी सीधी बात भी नहीं है. बधिया किया हुआ बैल ब्रह्मचारी नहीं हो गया. बस इतना हुआ कि वह हल के काम आ गया. अपनी गाड़ी में जोत लेना आसान हो गया. इसी तरह हार्मोन को कुचलकर, मारकर न कोई अहिंसक बन सकता है न ब्रह्मचारी. अब देखिये- युध्य का उपचार क्या है? निश्चय ही वह अहिंसा में है. विज्ञानं बराबर संहार कि भाषा में समाधान सुझाता रहा है. युध्य के रास्ते से मानव जाति समूचे इतिहास में से अपने लिए समाधान कि स्थिति खोजती आ रही है पर हर बार समाधान कि जगह नए युध्य कि सम्भावना उग आई दीखती है. पर हिंसा का अभाव अहिंसा नहीं है, युध्य की अक्षमता में युध्य कि समाप्ति नहीं है. निर्बल अहिंसक हो ही नहीं सकता. विज्ञानं मानता है कि बल होने के कारण ही युध्य है-बलहीनता में युध्य कि सम्भावना रहेगी ही नहीं. पर दर्शन में जीवन को बलहीनता कि भाषा में नहीं समझा जा सकता, इस दिशा में समाधान को खोजना या देखना नपुंसकता को ब्रह्मचर्य मान लेना है. अतः अहिंसा विज्ञानं से सिद्ध नहीं होगी. अहिंसा वह है जिसमे दुसरे को अपने निकट असिद्ध करना नहीं है बल्कि दुसरे में अपने को आहूत कर पाना है, उनके हितों में अपने को मिटा डालना है. विज्ञानं से यह चीज हासिल होने वाली नहीं अपितु यह है जिसको अपने लिए विज्ञानं को हासिल करना है.
चेतन और चेतना:: इस ब्रह्माण्ड में प्रतेक कण की संरचना एटम से हुई है . पत्थर का टुकड़ा, पेड़-पौधे, जिव-जंतु ,मनुष्य आदि सबकी संरचना एटमों से हुई है. पत्थर के टुकड़े में केवल पदार्थ है जबकि मनुष्य में पदार्थ और चेतना दोनों है. एटमों के संयोजन से किसी भी पदार्थ का कृत्रिम विधि से निर्माण किया जा सकता है- सरल हो या कठिन- यह हमारी सीमा है, सिधांत की सीमा नहीं है. परन्तु क्या यह भी संभव है की उस कृत्रिम पिंड में चेतना भी डाल दिया जाये?
वस्तुतः पदार्थ में व्यवस्था को जानना तथा पदार्थ के व्यवहार की खोज ही विज्ञानं है. पाश्चात्य दर्शन इन्द्रियवान को चेतन मानता है जबकि भारतीय दर्शन में चेतन वह है जो निर्विकार होता है, जिसे किसी इन्द्रिय या यन्त्र से जाना नहीं जा सकता, क्योंकि वह द्रष्टा है , देखने वाला है, दृश्य नहीं बना करता. चेतना (आतंरिक जगत )में किसी प्रकार की व्यवस्था है? पदार्थ में चेतना कैसे प्रविष्ट होती है तथा मृत्यु के पश्चात इस चेतना का कोई स्वरुप है या नहीं ? इन प्रश्नों का उत्तर पाना ही दर्शन है. अतः यदि एटमों के जोड़-तोड़ से ही प्रत्येक पदार्थ बना और चेतना भी पदार्थों में ही है तो उस संपूर्ण जगत की व्यवस्था का अध्ययन तभी संपूर्ण माना जायेगा जब हम पदार्थ और चेतना दोनों में सत्य को जानने का प्रयास करे. विज्ञानी पदार्थ जगत के सिधान्तों को जानने की जिज्ञासा करता है. दर्शन का उद्देश्य है चेतना में निहित व्यवस्था की जिज्ञासा. भगवन बुद्ध को इन्ही प्रश्नों ने उद्वेलित कर दिया था तथा इसी व्यवस्था को समझने के लिए राजपाट छोड़कर तपस्या का मार्ग अपनाया था.
अंतःकरण से सम्बंधित प्राचल या पैरामीटर का आकलन क्या विज्ञानं कर सकता है ? क्या इसका आंकिक आकलन संभव है की अमुक व्यक्ति में द्वेष का अंश पचीस प्रतिशत है तथा अन्य किसी में पचास प्रतिशत. क्षमाशीलता को अंकों के आकड़ों से प्रस्तुत नहीं किया जा सकता. अतः दर्शन का ज्ञान देने वालों में किसी सत्य को निरपेक्ष सत्य मान लेने की प्रवृति होती है.
  1. अब जरा जीवन अनुभूति को ले. दुःख के पलों में समय काटे नहीं कटता जबकि सुख के पलों में इसी समय के व्यतीत होने का भान तक नहीं होता- यह क्या है ? जबकि दोनों स्थितियों में समय अपनी गति से चल रहा है- यहाँ आकर विज्ञानं की सीमा समाप्त हो जाती है. अतः कह सकते है की विज्ञानं मात्र भौतिक जगत का एक अर्धसत्य है - पूर्ण सत्य नहीं है.