शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

कर्म और भाग्य

आप जितने भी कर्म करतें हैं उसके पांच कारण होते हैं -पहला अधिष्ठान-जिस आधार में कर्म को होना है-वह आधार उस कर्म के कितने अनुकूल है, इस पर कर्म की सफलता-विफलता निर्भर है। दूसरा-उस कर्म को करने वाला-उसका कर्ता कितना उद्योगी है। तीसरा-जो कर्म होना है, उसको सम्पन्न करने के लिए जिन उपकरणों का उपयोग होना है वे कितने ठीक हैं। चौथा -कर्म के करने में जितनी क्रियाएं होनी है वे सब कितनी ठीक-ठीक की गयीं। और पांचवां अंतिम है भाग्य। प्रथम चार बातें उपयुक्त है-इन चारों के सही होने के बाद भी यदि कर्म ठीक-ठीक सम्पन्न न हो तब कहना चाहिए-भाग्य या प्रारब्ध अनुकूल नहीं है। व्यक्ति सब दोषों को भाग्य मान लेता है।

अनेक बार हमारे कर्म हमारी योग्यता के कारण सफल या असफल नहीं होते। आप संसार में बहुत अयोग्य व्यक्ति को, सफल,सम्पन्न और उच्च पदस्थ देख सकतें है। बहुत योग्यतम व्यक्ति विफल, विपन्न मिलतें है। अगर व्यक्ति की योग्यता ही सब कुछ करती होती तो ऐसा नहीं होता।

अनेक बार परिस्थिति ही नहीं, वह आधार इतना सहायक हो जाता है,जहाँ काम होना है की केवल उसके कारण सफलता या विफलता मिल जाती है। अनेक बार हम जिस काम को करने लगते है, हमारे उपकरण उसे ठीक-ठीक-करने में समर्थ नहीं होते, हमारे औजारों में ही दोष है अतः आधार ठीक होने पर भी,हमारे कर्तृव्य में दोष न होने पर भी और हमारी कार्य पद्यति ठीक होने पर bhi hamein सफलता नहीं मिलती। आधार भी ठीक है, कर्ता भी ठीक है और उपकरण भी ठीक है जीतनें औजारों का उपयोग करके जो क्रिया जैसी की jaani चाहिए वैसी नहीं की जाय तो? आप समझ सकतें है की बहुत योग्य ड्राईवर शराब पिए हुए हो और गाड़ी चलाने की क्रिया ठीक न करे, तब विफल होना अनिवार्य हो जाता है। अतः जब चारों बातें ठीक हों, पूरा प्रयत्न किया जाये तब भी सफलता न मिले तब कहना चाहिए -भाग्य अनुकूल नहीं है। अब प्रारब्ध बाधक है और जब तक इन चारों क्रियायों में दोष है तब तक दोष भाग्य को नहीं दिया जाना चाहिए।

इन सबका तात्पर्य यह है की सभी कर्म केवल हमारे-आपके प्रयत्न से सफल नहीं होतें इसलिए कर्म के करने का अहंकार अपने उपर लेकर उस भार को उठाना बुद्धिमानी नहीं है.

गुरुवार, 8 अप्रैल 2010

व्यसन का त्याग

व्यसन का अर्थ है ऐसी वस्तु या क्रिया जो आपको अपने वश में कर ले जिसे सेवन करने के लिए आप विवश हों । व्यसन का अर्थ क्रिया भी है जैसे जुआ खेलना व्यसन है-जुआरी जुए के बिना नहीं रह सकता। सब व्यसन बुरे नहीं होते- जो बुरे नहीं हैं उसे व्यसन नहीं अपितु अभ्यास कहा जाता है। इस अभ्यास और व्यसन में एक अंतर है। व्यसन आपकी चेतना को समाप्त कर देता है जबकि अभ्यास आपकी चेतना को परिष्कृत करता है आपकी मनुष्यता को निखारता है।
बहुत से लोगों को भ्रम होता है की किसी नशा विशेष के सेवन से हानि नहीं है बल्कि उससे शांति मिलती है, एकाग्रता आती है। यह भ्रम आज का नहीं है अपितु प्राचीन कल से ही चला आ रहा है। बात यह है की नशे के सेवन से जो ध्यान या एकाग्रता मिलती है-वह आपके स्वतंत्र प्रयास से नहीं मिलती अतः उसका अच्छा परिणाम आपको नहीं मिलता। जैसे निद्रा और समाधी में कोई अंतर नहीं है परन्तु खूब गंभीर निद्रा लेने पर भी आपको कोई मनोजय प्राप्त नहीं होता- अधिक से अधिक यही होगा की शारीरिक रूप से आप प्रफुल्ल नजर आयेगें- यह इसलिए की निद्रा व्यक्ति को विवशतः आती है और समाधी स्वतंत्रतापूर्वक आपके प्रयत्न से प्राप्त होती है। इसी प्रकार किसी भी नशे के सेवन से जो मानसिक स्थिति आपको प्राप्त होती है वह आपका प्रयत्न नहीं है , नशा का प्रभाव है। नशा का प्रभाव दूर होने पर आप एक अवसाद का अनुभव करते है। ऐसा न होता तो क्लोरोफोर्म से प्राप्त बेहोशी समाधी कही जाती। मादक पदार्थों का जो लोग सेवन करते है उनमें ये सब लक्षण आपको मिलेगें।
आज चाय, तम्बाकू, गुटका, पान -मसाला बहुत व्यापक व्यसन हो गएँ हैं क्योंकि ये आपको विवश करतें हैं। जैसे भूख लगने पर आप भोजन कर लेते हैं पर कोई विशेष व्यंजन ही खाई जाये इसके लिए विवश नहीं है-रोटी की जगह चावल खा लेने से भी भूख मिट जाएगी-पर चाय के स्थान पर कोई शरबत पीकर या गुटका की जगह इलाइची खा कर आप काम नहीं चला सकते। आज जो सामाजिक स्थिति है उसमें हम आप अनेक बातों के लिए विवश हैं फिर भी हमें व्यसन का त्याग करना ही चाहिए-हालाँकि इस त्याग के लिए आपको मानसिक और शारीरिक संघर्ष करना होगा। व्यसन त्याग आप आवश्यक मान ले तब आपकी मानसिक स्थिति ऐसी हो जाएगी की आप आवश्यक संघर्ष कर सकेगें, आवश्यक कष्ट उठा सकेगें। इससे व्यसन छुट सकेगा। अतः आप जीवन में कोई उच्च स्थिति या लक्ष्य प्राप्त करना चाहते है तो व्यसन त्याग अनिवार्य मान लें.