मंगलवार, 8 जून 2010

granth-chintan

पूरी सृष्टि  तीन गुरों   से युक्त है अतः सृष्टि  की प्रत्येक वस्तु विचित्र लगती है. मनुष्य का सब प्रयत्न दुःख मिटाकर सुख प्राप्त करने का है लेकिन यह सुख जिसके लिए प्रयत्न किया जा रहा है वह तीन रूपों में प्राप्त किया जा सकता है. जैसे बहुत कम विद्यार्थी होतें है जिनकी पढाई में रूचि होती है अधिकांश को विवश होकर पढना पड़ता है. कोई मजदूर ख़ुशी से परिश्रम नहीं करना चाहता, किसी विवशता से परिश्रम करता है लेकिन पढाई पूरी होने पर जो योग्यता प्राप्त होती है या मजदूर श्रम करके जो मजदूरी प्राप्त करता है वह उनके लिए अमृत के समान है. यह तो सामान्य उदाहरण है . वस्तुतः जिस प्रयत्न से मन और बुद्धि  निर्मल होती है , उस प्रयत्न का आनंद अमृत के समान स्थाई, सुख देने वाला है. यही सात्विक सुख है. 
विषयों का इन्द्रियों के साथ संयोग होने पर जो पहले अमृत के समान लगता है वह बाद में विष के समान हो जाता है. यह सुख राजसी है. प्रिय शब्द, स्पर्श,रूप, रस या गंध इनको प्राप्त करके आपको बहुत सुख होता है, पर आप जानते है की इनके उपयोग के साथ कई रोग जुड़ें हुए हैं. भोग आतंरिक शक्तिं को, शरीर को विकृत करते है.
जो चित्त में विकार शक्ति को नहीं रहने देते जैसे निद्रा, आलस्य या प्रभाव को प्राप्त करने वाले सुख, तामसी सुख है. आज जितने भी उपाय समय काटने के लिए प्रचलित है और मनोरंजन के साधनों से भी ९० प्रतिशत से अधिक इस तामसी सुख को ही देने वाले है.
राजसी सुख भोग का सुख है. खाने-पीने का , आमोद-प्रमोद का जो सुख है वह तो थोडा बहुत सबको प्राप्त होता ही है. दूसरा राजसी सुख अहंकार का सुख है. कोई उपयोग नहीं है, लेकिन मेरा मकान इतना बड़ा,बैंक में मेरे पास इतने रूपये,मेरा प्रभाव इतना , इस प्रकार का जो अहंकार है,इस अहंकार में सुख नहीं है, ये तो आप नहीं कह सकते. इस सुख के पीछे ही समाज के अधिकांश लोग पागल हो रहे है. तीसरा राजसी सुख है क्रिया का सुख. आप रोज स्नान करते है-एक दिन स्नान करने को न मिले तो कितनी बेचैनी     होती है. यह बेचैनी  ही कहती है की स्नान करने से आपको सुख मिलता है.
तामसी सुख निद्रा और प्रमाद अर्थात समय काटने का सुख है. इसमें कोई उपयोगी काम नहीं किया जाता अपने समय को ताश,शतरंज  या गप्प आदि में व्यतीत किया जाता है. इसमें जो सुख है उसे आप अस्वीकार नहीं कर सकते. लेकिन तामसी सुख का सबसे निकृष्ट रूप है अधर्म में सुख. किसी को दुःख देकर, किसी को अपमानित करके, किसी को हानि पहुंचाकर गर्व करने वाले ,सुखी होने वाले लोग आप के आस-पास होंगे - आपने उन्हें देखा होगा.इनका यह सुख तो है ही, यह सुख तामसी है.
तामसी सुखों में से आवश्यक निद्रा को छोड़कर बाकि प्रमाद और अधर्म के सुखों को त्याग देना चाहिए. राजसी सुखों में से भोग को समाप्त कर देना चाहिए, अहंकार के सुख को भी छोड़ देना चाहिए और क्रिया से होने वाले सुख को , यदि क्रिया उचित है तो आप बनाये रख सकते है. सात्विक सुखों में से कोई छोड़ने योग्य नहीं है अपितु उसे बढ़ाते रहना चाहिए.

बुधवार, 2 जून 2010

karm tatha karmyog ke adhikari

किसी भी कर्म का कौन अधिकारी हो सकता है -यह तय करना पड़ता है, उसके अधिकार का निर्णय लेना पड़ता है. यदि आप नौकर रखना चाहतें हैं तो आप अवश्य जानना चाहेंगे की उसमे उस काम की योग्यता  है की नहीं- अगर आप को यह मालूम हो जाये की जो व्यक्ति नौकर की सेवा करने आप के यहाँ आया है वह चोर है, अनाचारी है, शराबी है तो क्या आप उसे रखना पसंद करेंगे? सेना में जिन लोगों की भरती की जाती है उनमे शारीरिक योग्यता देखी जाती है. वहां भी अधिकारी का निर्णय होता है की जिस काम के लिए वह लिया जा रहा है  उसे पूरा करने की क्षमता उसके शरीर में है की नहीं. इस  तरह कोई भी लौकिक कार्य नहीं है जिसमे अधिकारी का निर्णय आवश्यक न होता हो. प्रत्येक व्यक्ति प्रत्येक कार्य कर सके , ऐसा नहीं है. एक ही व्यक्ति में अनेक कामों की योग्यता हो सकती है , किन्तु सब कामों की योग्यता हो जाएगी-यह संभव नहीं है और क्योंकि यह संभव नहीं है अतः काम के अनुसार अधिकारी छाटना ही पड़ता है.
जो भी चाहे सामाजिक कार्य करने लगे, जिसका जी चाहे वह नेता बन जाये-यह बात आजकल सामान्य हो गयी है पर इसके कारण समाज की हानि ही हुई है क्योंकि व्यक्ति का व्यक्तित्व जितना व्यापक होता जाता है उसके दोष उतने ही अधिक समाज में व्यापक होतें है उनके गुण उतने तेजी से नहीं फैलते क्योंकि लोकरुचि सत्प्रवित्ति  को देर से ग्रहण करने की है. इसमे लोकरुचि का दोष नहीं है यह प्रकृति का ही स्वभाव है की प्रत्येक वस्तु को बनाने में, उठाने में बहुत परिश्रम करना पड़ता है किन्तु बिगाड़ने  में, गिराने में थोड़े परिश्रम की आवश्यकता होती है. आप किसी वस्तु  को उपेक्षित कर दे, उसे बनाये या स्वच्छ  करने का प्रयत्न न करे तो बिना किसी प्रयत्न के वह वस्तु   मलिन होती रहेगी, बिगडती रहेगी. वह भवन हो, उद्यान हो, मशीन  कुछ भी हो, उसकी सुरक्षा के लिए प्रयत्न करना पड़ता है. वह प्रयत्न छोड़ दिया जाये तो वह अपने आप नष्ट होती जाएगी.


कर्मयोग के अधिकारी का जब चुनाव करना पड़ता है तो पहली शर्त है की वह व्यक्ति निस्वार्थ  हो.  अपने लिए उसे कोई पद, पदार्थ या प्रशंशा अभीष्ट न हो. क्या मिलता है की जगह वह क्या चाहता है, केवल इतना ही नहीं, कष्ट, श्रम , तिरस्कार, विफलता- इनको बहुत बड़ी सीमा तक सहने को प्रस्तुत होना चाहिए. इनमें से कुछ मिलने पर अविचलित रह सके, इतना धैर्य ,इतनी शक्ति उसमें होनी चाहिए. वह जिस कर्म में लगा है, उस कर्म से उसे कोई निंदा , कौई अपमान, कोई कष्ट नहीं हटा सके, तभी वह कर्मयोगी बन पायेगा.