बुधवार, 24 मार्च 2010

आसक्ति से बचे

आप अपने जीवन को देखिये-कभी आपको कोई गाली दे देता है, आप उसकी उपेछा कर देते है-हालाँकि आपको दुःख होता है,पीड़ा होती है फिर भी आप उसकी उपेछा कर देते है या यों कहें कई बार उपेछा कर देते है। यदि कई बार उपेछा को ही आप स्थाई बना ले तो क्या कहना। अब आप अपने पिछाले जीवन को देंखे। बहुत कम ऐसा हुआ होगा की सुख आपको बिना छुए निकल गया हो, सम्मान, प्रशंशा, यश आपको स्पर्श न किया हो, आप उससे अप्रभावित रहे हो, जैसे आप अनेक बार अपमान की उपेछा कर देते है, सम्मान की उपेछा नहीं कर पाते है। इसका क्या मतलब? इसका अर्थ यह है की सुख, सम्मान, यश-इनको सह लेना दुःख, अपयश, अपमान को सह लेने की अपेछा अधिक कठिन है। इसलिए इसको सह लेने पर जोर देना चाहिए आपको।

आप जानते है मनुष्य को आसक्ति के कारन ही दुःख प्राप्त होता है। आप यह भी मानते है की संसार की स्थिति तथा संसार के पदार्थ समान रूप से हमेशा बने नहीं रह सकते। आप किसी व्यक्ति के साथ आसक्त है या पदार्थ के प्रति, पदार्थ नष्ट हो सकता है, व्यक्ति आपकी उपेछा कर सकता है आप से दूर जा सकता है। आप उसके सामीप्य का या पदार्थ के उपभोग का अवसर खो सकते है। आप ने देखा होगा की जो मनुष्य बहुत स्वादलोलुप होता है सम्पन्न है उसे स्वदिष्ट पदार्थों का आभाव कभी नहीं होता पर उनका पेट ख़राब हो जाता है फलतः उसे संयम करना पड़ता है उनकी इच्छा पूरी नहीं होती। मतलब यह है की संसार के विषय ऐसे नहीं है जो आपकी इच्छानुसार प्रचुर उपलब्ध हो और आप निर्बाध रूप से उसका उपभोग करते रहे। पदार्थ का आभाव हो सकता है, अपनी शक्ति का आभाव हो सकता है। व्यक्ति का वियोग हो सकता है- हम उसे छोरकर चले जा सकते है। यदि हममे कहीं भी आसक्ति होगी तो वह दुःख दिए बिना नहीं रह सकती। दुःख से छुटने का एकमात्र उपाय है आसक्ति से परहेज। अतः हम सभी को चाहिए की आसक्ति से बचने का हर संभव प्रयास करे तभी सुखी रह सकते है.

मंगलवार, 9 मार्च 2010

सुखी व्यक्ति कौन

संसार में आज सुखी व्यक्ति कौन है ? आप विचार कीजिये.परन्तु इसके पहले दुःख को देखिये-दुःख कहाँ से उत्पन्न होता है? जो हमको प्रिय है उसकी अप्राप्ति और जो अप्रिय है उसकी प्राप्ति-यही दुःख है। यह अप्रिय या प्रिय किसी न किसी इंद्रिय के माध्यम से हम तक पहुंचता है जैसे शब्द प्रिय या अप्रिय हो सकता है। इसी प्रकार दृश्य, स्पर्श, गंध आदि भी प्रिय या अप्रिय होता है। दुःख की उत्पत्ति ही इसके स्पर्श से होती है। अतः जो जागरूक है वे भोगों में रूचि नहीं लेते फलतः वह पदार्थ अपनी उपस्थिति से उनको सुख या दुःख नहीं देता।

संसार में करोड़ों स्त्री-पुरुष है जो अछे -बुरे सब प्रकार के है पर उनमे से जिनसे आपका पूर्व संपर्क न हो उनके द्वारा आपको कोई दुःख या सुख नहीं होता। सुख या दुःख तब होता है जब आप उनमे से किसी विषय में रूचि लेते है।
वावजूद इसके आप भोगों में रूचि ले या न ले फिर भी बहुत सी बातें, प्राकृतिक झटके आप तक आयेगें ही। जैसे आंधी आ गयी तो आप चाहें या न चाहें, रूचि ले या न ले, कुछ धूल आप तक भी पहुचेगी। इसी प्रकार आप चाहें या न चाहें आप का शारीर गन्दा होगा ही और उसे धोते रहना पड़ेगा। और अंतःकरण यानि मन शरीर का ही भाग है इसलिए प्रकृति की चलने वाली आंधी वहां तक भी पहुंचती है। यह आंधी काम और क्रोध है जिसके आने का पता आपको नहीं चलता अतः इसे रोकना असंभव है। जैसे मकान ऐसा बनाना संभव नहीं है की आंधी ,वायु न आवे यदि ऐसा मकान बने तो उसमे रहना संभव नहीं होगा अतः मकान में खिड़की रखनी ही पड़ेगी। आंधी आने पर उसको बंद किया जा सकता है लेकिन आंधी तो पूछकर नहीं आती अतः आंधी की धूल तो आएगी ही। इसी प्रकार मन में काम और क्रोध का वेग न आये यह संभव नहीं है क्योंकि ये दोनों आंधी है- ये व्यक्ति के कारण भी और समष्टि के कारण भी उठते है।

ये वेग स्थायी नहीं हैं आकर बने ही रहे ऐसा होता नहीं। संसार में कोई व्यक्ति ऐसा नहीं मिलेगा जो एक सप्ताह लगातार काम या क्रोध का वेग ढ़ोता रहे इसके पहले ही पागल हो जायेगा या मर जायेगा। इन वेगों को, शरीर से बाहर निकलने के पहले ही जो सह लेता है वही सुखी है। दुःख उसके समीप नहीं आएगा। वही संसार में सुखी व्यक्ति है.

मंगलवार, 2 मार्च 2010

समत्व की महिमा

जीवन में समता का बहुत ही महत्व है.आतंरिक और वाह्य समता दोनों प्रधान है और दोनों की महिमा महान है ।

पृथ्वी के समस्त जीवों में एक ही मिटटी ,पानी, अग्नि, वायु और आकाश रहतें है। आपकी श्वास कुते, हाथी, सांप आदि सबके सरीर में समान रूप से प्रवेश करती है और उन सबकी श्वास आपके भीतर आती है। दो जीवों के रक्त में कुछ ऐसा अंतर नहीं होता की डाक्टरी अंतर को छोड़कर आप उसमे कोई विशेष अंतर बता सकें। केवल बाहरी आकार को लेकर शरीर का अंतर किया जाता है यानि आकृति से। आकृति का अंतर वैसे ही है जैसे मिटटी के विभिन्न वर्तनों में होता है। यह अंतर व्यव्हार और योग्यता में होता है। समान व्यवहार सांप और कुत्ते के साथ नहीं हो सकता इसी तरह घड़े और दीपक का व्यवहार समान रूप से नहीं किया जा सकता क्योंकि दोनों की उपयोगिता पृथक है। अतः आकृति के अंतर को व्यवहार तक ही रहने देना चाहिए।

व्यवहार का एक आदर्श है-आत्मनः प्रतिकुलानी परेशां न समाचरेत- जो व्यवहार आपके साथ किया जाये और आपको बुरा लगे, वैसा व्यवहार आपको दुसरे के साथ नहीं करना चाहिए। इस सम्बन्ध में भी थोड़ी सावधानी आवश्यक है। इसका यह अर्थ नहीं की आपको मिर्च अच्छी लगती है तो आप सबके भोजन में मिर्च डालें। इसका अर्थ यह है की आप यह देखे की जैसे आप अपनी प्रिय वस्तु चाहते है, आपकी अपनी रूचि है वैसे दूसरों की भी अपनी रूचि है। आप जैसा सम्मान अपनी रूचि का चाहते है, दूसरों की रूचि का वैसा ही सम्मान करें।

व्यवहार में यह समता, जीवन में आपको सफल बनाती है, सम्मान देती है और लोकप्रिय बनाती है साथ ही आतंरिक दृष्टि से आपको सहिष्रू बनाती है क्योंकि समाज में यह संभव नहीं है की अपने संपर्क में आये लोगों के साथ हमारी रूचि का संघर्ष न हो। ऐसी स्थिति में सत्पुरुष वह है जो दूसरों की रूचि का सम्मान करता है। इस सहिश्रुता के कारन बहुत से साधनों का विकास होता है। इसीलिए कहा गया है की समता सद्गुणों की आधारशिला है।

समत्व का व्यवहार दुर्गुणों से मनुष्य को बचाता है। किसी का कोई दुर्गुण आपको सह्या नहीं अतः आपमें कोई दुर्गुण नहीं होने चाहिए। यहाँ तक की अपनी ही बात कहने, दूसरों की बात सुनने के लिए पर्याप्त धैर्य न होना - यह सब समत्व आते ही दूर हो जाता है। व्यवहार की समता आपको आतंरिक समत्व के लिए सक्षम बनाती है और व्यावहारिक जीवन को सुखी, सम्मानित बनाती है। अतः दोनों समाताओं की उपलब्धि पर विशेष ध्यान आपको रखना ही चाहिए.