मनुष्य स्वयं अज्ञानी होता है इसके साथ यदि उसमे श्रद्धा नहीं है ,किसी की बात मानने के लिए तैयार नहीं है,जो कुछ बतलाया जाता है उसपर संदेह करता है.ऐसे संशय चित वाले को सुख और सफलता प्राप्त नहीं होती।
वर्तमान दौर में हर बात में संदेह करना सामान्य बात हो गयी है। लोग बड़े गर्व से कहते है मैं अन्धविश्वासी नहीं हूँ लेकिन आपको मालूम होना चाहिए की विश्वास या श्रद्धा सदा ही अंधी होती है। केवल विश्वास या श्रद्धा से वही बात कही जाती है जो अन्धविश्वास से क्योंकि जिस विषय में आपको जानकारी है वह तो आपका ज्ञान,अनुभव या अध्ययन है परन्तु जिस विषय में आपकी जानकारी नहीं है उस विषय के किसी बड़े या किसी पुस्तक की बात को सच मान लेने का नाम ही श्रद्धा या विश्वास है। बिना अपनी जानकारी के उस बात को सच मान लेना यह सदा से ही अंध है।
आप अपने चारों तरफ देखे-संसार का कोई भी काम श्रद्धा या विश्वास के बिना नहीं चलता.छोटे से छोटे व्यवहार में भी आपको विश्वास करना ही पड़ता है । आप विज्ञान को ही ले ले -विज्ञान का प्रत्येक विधार्थी अपने से पहले के वैज्ञानिकों की खोज मान लेता है-यह मान लेना श्रद्धा के सिवा क्या है?। यदि प्रत्येक विद्यार्थी या वैज्ञानिक खोज को आरम्भ से ही प्रयोग कर देखना चाहे तो विज्ञान हजारों साल पीछे चला जायेगा। व्यक्ति चाहे कितना ही बुद्धिमान हो अपने पूर्ववर्ती लोगों की खोजों पर भरोसा करके ही चलना पड़ता है। ये खोजें ठीक है ,उसे विश्वास करना पड़ता है भले ही इस श्रद्धा के लिए आपको बहुत सी पुस्तकें पढ़नी पड़ी हों-आपने प्रयोग करके तो देखा नहीं की यह ठीक है या नहीं। इसे और सरल तरीके से कहे तो आप जानते है की सायनाइड एक मारक विष है । यह कभी प्रयोग करके देखा है आपने? कभी किसी वैज्ञानिक ने प्रयोग किया होगा। वह वैज्ञानिक भी आपके सामने तो प्रयोग नहीं किया है पर हम सभी विश्वास करते है की सायनाइड बहुत तीव्र विष है। इसी विश्वास के कारन व्यवहार चलता है। यदि आप इस पर संदेह करके प्रयोग करेगें तो मृत्यु निश्चित है।
जो व्यक्ति अज्ञानी ही(प्रत्येक व्यक्ति बहुत सारे विषयों में अज्ञानी होता है) और अविश्वासी भी है, हर बात में संशय करता है तब इसके अतिरिक्त और क्या उपाय रह जाता है की उसे निरंतर असफलता मिले, दुःख मिले। अतः जो व्यक्ति हर जगह संदेह करने लगेगा उसका जीवन अशांत हो जायेगा और जीवन में असफल हो जायेगा.
मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010
बुधवार, 10 फ़रवरी 2010
परम-शांति
आज पूरा विश्व अस्थिरता के दौर से गुजर रहा है-यह अस्थिरता भौतिक तथा प्राकृतिक दोनों रूपों में है-अशांति फैली हुई है.हर राष्ट्र एक दुसरे से भयभीत है और इस भय मे शांति की बात चल रही है-बड़े बड़े आयोजन हो रहे है फिर भी शांति नहीं मिल पा रही है। यह अशांति जीवन के हर क्षेत्र मे विद्यमान है। परिवारों मे बहुत ऐसे कम भाग्यशाली परिवार हैं जिनमे शांति है नहीं तो पारस्परिक संघर्ष और कलह है.समाज के किसी क्षेत्र मे शांति नहीं है। इसको हम सभी मानते है की अशांति दुःख का कारन है-शांति के बिना सुख की कल्पना नहीं की जा सकती।
मनुष्य को दो प्रकार की चिंता होती है-वह अशांत रहता है-एक जो उसे प्राप्त नहीं है जिसकी उसे आवश्यकता प्रतीत हो रही है वह प्राप्त हो-दूसरी जो उसके पास है और उसके लिए आवश्यक लगती है,वह नष्ट न हो-इसे कहते है योग और क्षेम की चिता। योग का अर्थ है जो नहीं मिला है वह मिले औए क्षेम का अर्थ है जो मिला हुआ है वह सुरक्षित रहे। उपार्जन और सुरक्षा -इन दो अशांतियो मे ही मनुष्य का पूरा जीवन विभक्त है। यदि दोनों मे से कोई चिंता न करनी हो तो मनुष्य संपूर्ण निश्चिंत है और यह निश्चिंतता ही परम सुख है परम शांति है।
यह एक कटु सत्य है की भौतिक साधनों से अशांति को मिटाया नहीं जा सकता क्योंकि बाहरी समस्त अशांति परिस्थितियों के प्रयत्न की प्रेरणा से ही उत्पन्न होती है। व्यक्ति, समाज,संस्था,राष्ट्र आदि परिस्थितियों को ही बदलना चाहते है -इस बदलाव से शांति नहीं पाई जा सकती।
शांति बाहर से नहीं आएगी क्योंकि शांति वाह्य पदार्थ नहीं है-यह आतंरिक तत्त्व है इसलिए अपने भीतर से आएगी। आपको इस पर विचार करना चाहिए की इसे किस तरह प्राप्त किया जाये। आपको दुःख और सुख से निरपेक्ष होना होगा तभी यह शांति प्राप्त हो सकेगी.
मनुष्य को दो प्रकार की चिंता होती है-वह अशांत रहता है-एक जो उसे प्राप्त नहीं है जिसकी उसे आवश्यकता प्रतीत हो रही है वह प्राप्त हो-दूसरी जो उसके पास है और उसके लिए आवश्यक लगती है,वह नष्ट न हो-इसे कहते है योग और क्षेम की चिता। योग का अर्थ है जो नहीं मिला है वह मिले औए क्षेम का अर्थ है जो मिला हुआ है वह सुरक्षित रहे। उपार्जन और सुरक्षा -इन दो अशांतियो मे ही मनुष्य का पूरा जीवन विभक्त है। यदि दोनों मे से कोई चिंता न करनी हो तो मनुष्य संपूर्ण निश्चिंत है और यह निश्चिंतता ही परम सुख है परम शांति है।
यह एक कटु सत्य है की भौतिक साधनों से अशांति को मिटाया नहीं जा सकता क्योंकि बाहरी समस्त अशांति परिस्थितियों के प्रयत्न की प्रेरणा से ही उत्पन्न होती है। व्यक्ति, समाज,संस्था,राष्ट्र आदि परिस्थितियों को ही बदलना चाहते है -इस बदलाव से शांति नहीं पाई जा सकती।
शांति बाहर से नहीं आएगी क्योंकि शांति वाह्य पदार्थ नहीं है-यह आतंरिक तत्त्व है इसलिए अपने भीतर से आएगी। आपको इस पर विचार करना चाहिए की इसे किस तरह प्राप्त किया जाये। आपको दुःख और सुख से निरपेक्ष होना होगा तभी यह शांति प्राप्त हो सकेगी.
गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010
अप्रमाद
धार्मिक तथा अनेक ग्रंथों में प्रमाद को जीवन के लिए हानिकर बताया गया है-वस्तुतः प्रमाद है क्या? आप कहते है मै भूल गया-बात ध्यान में नहीं रही। इसी का नाम प्रमाद है और अर्थ है असावधानी.मनुष्य के लिए कुछ बातें आवश्यक है और कुछ अनावश्यक। जैसे उचित निद्रा जीवन के लिए आवश्यक है जितनी उपयुक्त निद्रा आपके स्वास्थ्य और शरीर की स्थिति को देखते हुए आवश्यक है उतनी निद्रा ली जानी चाहिए.आलस्य और प्रमाद अनावश्यक क्षेत्र है-इसमे आलस्य आपकी बुद्धि को आछन्न नहीं करता क्योकि आप जानते है पर आलस्य के कारन पड़े है किन्तु प्रमाद -यह व्यक्ति के बुद्धि को आच्न्न कर लेता है.असावधानी जान-बुझकर नहीं की जाती,हो जाती है-इसी असावधानी से बचना चाहिए।
जानवर पेट भरने या जीवन की थोड़ी बहुत आवश्यकता पूरा करने के अतिरिक्त अपना बाकि समय बैठकर,खड़े रहकर या सामान्य चेष्टा में काटता है। समय अकारण काटता है इसलिए पशु है। शारीरिक आवश्यकता से ऊपर उसके समक्ष कोई लक्ष्य नहीं है। हम भी इसी स्थिति को अपना ले यह बहुत दुःख की बात होगी। अतः प्रमाद में हमारी आसक्ति न हो । हमें सतत सावधान रहना चाहिए,जागरूक रहना चाहिए.
जानवर पेट भरने या जीवन की थोड़ी बहुत आवश्यकता पूरा करने के अतिरिक्त अपना बाकि समय बैठकर,खड़े रहकर या सामान्य चेष्टा में काटता है। समय अकारण काटता है इसलिए पशु है। शारीरिक आवश्यकता से ऊपर उसके समक्ष कोई लक्ष्य नहीं है। हम भी इसी स्थिति को अपना ले यह बहुत दुःख की बात होगी। अतः प्रमाद में हमारी आसक्ति न हो । हमें सतत सावधान रहना चाहिए,जागरूक रहना चाहिए.
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