सोमवार, 17 मई 2010

ज्ञान,विज्ञानं और ज्ञानी

विज्ञानं का अर्थ होता है विशेष का ज्ञान। ज्ञान निर्विकल्प और अखंड है, निर्विशेष और निर्विकार है,किन्तु विज्ञानं संसार में जो विशिष्ट विशेषताएं है उन सबको अपना विषय बनाता है। लेकिन जितने व्यावहारिक ज्ञान हैं वे अनुभवजन्य हो या पुस्तकीय हो, सबका सब विज्ञानं है।
आज विज्ञानं शब्द भोतिक तत्वों के प्रयोगात्मक ज्ञान के अर्थ में रूढ़ हो गया है। संपूर्ण जगत में सब प्रकार के व्यावहारिक ज्ञान को विज्ञानं शब्द के भीतर ही माना गया है.क्योंकि विविधता का ज्ञान -विशेषता का ज्ञान ये दोनों विज्ञानं ही हैं। विविधता तथा विशेषता का ज्ञान इसलिए आवश्यक है की व्यव्हार में व्यावहारिक प्रवित्ति को ठीक ठीक समझा जा सके। जैसे नासमझी से जो वैराग उत्पन्न होता है वह ठीक नहीं होता। वह किसी छन खंडित हो सकता है। जैसे तीव्र प्रकाश आँखों को अस्त-व्यस्त कर देता है चकाचौंध उतपन्न कर देता है और उसमें कुछ दीख नहीं पड़ता। लेकिन पहले से पता हो की तीव्र प्रकाश होने वाला है तब आप अपनी आँख की सुरक्षा कर लेते है और उस प्रकाश में भी देख सकते है। इसी प्रकार विविधता और विशेषता का ज्ञान न हो तो उसमे कभी भी कोई ऐसी विशेषता सामने आ सकती है जो व्यक्ति के विवेक को चकाचौंध में डालकर उसे अस्थिर बना दे, विचलित कर दे, इसलिए विविधता और विशेषता आपको जानना ही चाहिए।
यह असंभव है की आप या मैं सृष्टि की सारी विशेषता और विविधता को जान ले, किन्तु इन विविधतावों , एवं विशेशातावों में कुछ सामान्य नियम होतें है। जैसे हम नहीं जान सकते की सृष्टि में कितने भोज्य पदार्थ है पर यह जान सकते है की कोई भी भोज्य पदार्थ है जिब्हा पर उसका अनुभव रसों से ही किसी विशेष ढंग का होगा। प्रतेक भोज्य पदार्थ शरीर पर किस प्रकार का प्रभाव डाल सकता है यह भी हम जान सकते है। विज्ञानं का अर्थ सृष्टि की सब विविधातावों -विशेश्तावों को जान लेना नहीं है क्योंकि व्यक्ति विशेष के लिए इनको जान लेना संभव ही नहीं है। लेकिन जैसे भोजन के सम्बन्ध में सामान्य ज्ञान एक समझदार व्यक्ति जान लेता है उसी प्रकार सृष्टि की विविधातावों और विशेश्तावों का सामान्य रूप, सामान्य प्रभाव हम जान सकते है। इसी जानने का नाम विज्ञानं है।
ज्ञान चूँकि निर्विशेष है, अखंड है, आत्मा का स्वरुप है अतः विविध नहीं होता-दो ही स्थितियां है कोई ज्ञानी है या अज्ञानी। ज्ञानी छोटा-बड़ा नहीं होता। यह बडापन केवल ज्ञानी के बाहरी व्यव्हार को देखकर होता है। ज्ञान के साथ उसमे जो विज्ञानं है उसी में छोटा-बडापन होता है। सृष्टि की विविधता और विशेषता का कम या अधिक ज्ञान सभी को हो सकता है। संपूर्ण ज्ञान तो ईश्वर के अतिरिक्त और किसी को हो ही नहीं सकता.

गुरुवार, 6 मई 2010

अंतर्मुखता

मनुष्य के उत्थान के लिए जितने भी साधन हैं वे सभी व्यक्ति को अंतर्मुख करते है। सत्पुरुष, व्यक्ति को बहिर्मुख नहीं करता। अंतर्मुख और बहिर्मुख-बाहर और भीतर-इसका अर्थ घर में और बाहर नहीं है। त्वचा से आच्छादित हमारा या आपका जो शरीर है वह भी घर ही है। इस त्वचा के भीतर जो कुछ भी है वह कोई बहुत पवित्र नहीं है क्योंकि भीतर हड्डी, मांस, रक्त,यही सब है और इसमे से कोई भी ऐसा नहीं है जो शरीर के बाहर हो तो आप उसे छूना पसंद करेंगे। अतः अंतर्मुखता का अर्थ शरीर के भीतर नहीं।

अंतर्मुखता का अर्थ है मन और उससे भी बड़ा जो चेतन है उसकी ओर उन्मुख होना और बहिर्मुखता का अर्थ है शरीर और संसार के राग-द्वेष में प्रवित्त होना। जैसे आप आराधना करते है-पूजा करतें है -हालाँकि यह व्यवहार शरीर के बाहर होता है पर यह व्यवहार आपको किसी सांसारिक व्यापार में नहीं लगाता बल्कि आपको अपने अंतःकरण में एकाग्र होने की प्रेरणा देता है इसलिए बाहर होने वाला काम होने पर भी यह अंतर्मुख करने वाला है परन्तु जब आप कमरे में बैठकर अपना बैंक बैलेंस जोड़तें है, अपने मित्र या शत्रु का चिंतन करतें है, भले ही इस चिंतन के समय आपको अपने शरीर की याद न हो, भूख प्यास भूलकर ध्यानस्थ हों-पर उस समय आप बहिर्मुख है क्योंकि उस समय आप अपनी आसक्ति, अपने राग या द्वेष को दुहरातें है।

जीवन की सच्ची उपलब्धि और उसका विकास अंतर्मुखता में है। संपत्ति, सम्मान, वैभव, प्रतिष्ठा एकत्र करने के प्रयत्न से बचते हुए मन और चेतन की ओर हमें उन्मुख होना चाहिए.