गुरुवार, 6 मई 2010

अंतर्मुखता

मनुष्य के उत्थान के लिए जितने भी साधन हैं वे सभी व्यक्ति को अंतर्मुख करते है। सत्पुरुष, व्यक्ति को बहिर्मुख नहीं करता। अंतर्मुख और बहिर्मुख-बाहर और भीतर-इसका अर्थ घर में और बाहर नहीं है। त्वचा से आच्छादित हमारा या आपका जो शरीर है वह भी घर ही है। इस त्वचा के भीतर जो कुछ भी है वह कोई बहुत पवित्र नहीं है क्योंकि भीतर हड्डी, मांस, रक्त,यही सब है और इसमे से कोई भी ऐसा नहीं है जो शरीर के बाहर हो तो आप उसे छूना पसंद करेंगे। अतः अंतर्मुखता का अर्थ शरीर के भीतर नहीं।

अंतर्मुखता का अर्थ है मन और उससे भी बड़ा जो चेतन है उसकी ओर उन्मुख होना और बहिर्मुखता का अर्थ है शरीर और संसार के राग-द्वेष में प्रवित्त होना। जैसे आप आराधना करते है-पूजा करतें है -हालाँकि यह व्यवहार शरीर के बाहर होता है पर यह व्यवहार आपको किसी सांसारिक व्यापार में नहीं लगाता बल्कि आपको अपने अंतःकरण में एकाग्र होने की प्रेरणा देता है इसलिए बाहर होने वाला काम होने पर भी यह अंतर्मुख करने वाला है परन्तु जब आप कमरे में बैठकर अपना बैंक बैलेंस जोड़तें है, अपने मित्र या शत्रु का चिंतन करतें है, भले ही इस चिंतन के समय आपको अपने शरीर की याद न हो, भूख प्यास भूलकर ध्यानस्थ हों-पर उस समय आप बहिर्मुख है क्योंकि उस समय आप अपनी आसक्ति, अपने राग या द्वेष को दुहरातें है।

जीवन की सच्ची उपलब्धि और उसका विकास अंतर्मुखता में है। संपत्ति, सम्मान, वैभव, प्रतिष्ठा एकत्र करने के प्रयत्न से बचते हुए मन और चेतन की ओर हमें उन्मुख होना चाहिए.