सोमवार, 16 अगस्त 2010

chintan

१६ जुलाई के बाद जिदगी के अनछुए पहलुओं से रूबरू होना पड़ा. इस बीच परिस्थितिओं में काफी बदलाव हुआ. चिंतन को एक नयी दिशा प्राप्त हुई. यह जो विज्ञानं के द्वारा अनेक सुविधाएँ हमें  मिली हैं उसके उपयोग और दुरुपयोग पर सोचता रहा. आज के युग में आदमी इतना विवेकहीन हो सकता है , नैतिक रूप से इतना नीचे जा सकता है  , हमने-आपने कभी सोचा न होगा. आज बाजार में सब कुछ बिकता है और इस खरीद -फ़रोख्त में विचार भी शामिल हो गया है. किस बात को लेकर आज आदमी अपने पर गर्व करता है? धन संचय की यह जो जिजीविषा जन्म ले रही है वह आदमी को पतन की किस सीमा तक ले जाएगी सोचा नहीं जा सकता. पतनशील मार्ग को आदमी प्रगतिशील मार्ग मान रहा है आज. धरती का मानव इस जगह पहुँच जायेगा यह भगवान ने भी नहीं सोचा होगा. आप भी इस पर विचार कीजिये.

सोमवार, 12 जुलाई 2010

Science and philosophy


इस विषय पर चिंतन करने के पहले यदि मैं मान लू की आज के युग में सभी लोगों को कार्य रूप में विज्ञानं और दर्शन दोनों का अर्थ ज्ञात है तो अच्छा रहेगा क्योंकि किसी परिघटना की चर्चा करने पर सभी यह अंतर बताने को तत्पर रहतें है कि इस परिघटना का क्षेत्र विज्ञानं है या दर्शन. अतः इसका औचित्य देखने के लिए यह जरुरी है कि विज्ञानं और दर्शन के अर्थ, स्वरुप और उद्देश्य पर चिंतन किया जाये.
दर्शन का अर्थ है जिसके द्वारा देखा जाये. देखने का स्थूल साधन आँखें है. इस आँख रूपी इन्द्रिय द्वारा जो ज्ञान प्राप्त होता है वह ज्ञान ही दर्शन का अभिप्रेत देखा हुआ ज्ञान है. यह मत स्थूल दर्शनों का है. दुसरे सूक्ष्म दर्शनों का मत है कि कुछ वस्तुएं ऐसी भी है जो आँखों से नहीं देखी जा सकती, उनके लिए दृष्टि या तात्विक बुद्धि के दुसरे नाम प्रज्ञा चक्षु , ज्ञान चक्षु या दिव्य दृष्टि है. इस मत में दर्शन शब्द का अर्थ हुआ जिसके द्वारा ज्ञान प्राप्त किया जाये.
विज्ञानं और दर्शन दोनों का उद्देश्य होता है सत्य कि खोज. भौतिक जगत में व्यवस्था की सत्यता के विषय में जिज्ञासा करना ही विज्ञानं है. जिज्ञासा के कारण ही मनुष्य यह ज्ञान प्राप्त करता है कि भौतिक जगत में प्रकृति का व्यवहार कैसा है. विज्ञानी यह पता लगाता है कि प्रकृति कैसी है, वह ये नहीं खोजता कि ये ऐसी ही क्यों है. विज्ञानं का क्षेत्र है यह जानना कि कोई परिघटना क्या है-न कि यह जानना कि उसका स्वरुप क्या होना चाहिए. दुसरे शब्दों में कह सकते है कि विज्ञानं का अर्थ सृष्टि कि सब विशेषताओं और विविधताओं को जान लेना नहीं है, इसीलिए वैज्ञानिक मानसिकता में अनिश्चितता का स्थान प्रमुख होता है.
दर्शन का क्षेत्र हमारी अंतःकरण की व्यवस्था का अध्ययन एवं संवेदनशीलता का मूल्यांकन है. आतंरिक जगत में व्यवस्था का ज्ञान प्राप्त करना ही दर्शन है. यह संसार क्या है? ये जीवन-मृत्यु के बंधन क्या है? मैं क्या हूँ? इन सभी के मूल में अव्यक्त रहस्य को समझ लेना ही दर्शन है.
सृजन का प्रश्न :: विज्ञानं की उन्नति ने हमें बता दिया है की वह अपने में अपर्याप्त है क्योंकि विज्ञानीय विश्लेषण की पध्यती में हम कहीं भी पंहुच जाएँ पर अंतिम संश्लिष्ट और अखंड तत्त्व तक नहीं पंहुच सकेगे. उसे तत्त्व कहना भी भाषा की अपंगता है- वह है सत्य अर्थात जो है, अंतिम नितांत सनातन भाव से है.
आज जिस भीषण संकट में जगत अपने को अनुभव कर रहा है वह अपने को विज्ञानं के हाथों में सौप रहने के कारण. वह प्रकृति में और प्रकृति के साथ था लेकिन आज मानव को शांति का रास्ता नहीं मिल रहा है, दुःख से आहत है इसीलिए आज विश्व के विचारकों की एक बड़ी संख्या मानने लगा है की भौतिक साधनों से अशांति को मिटाया नहीं जा सकता. एटम को मानव ने भेद डाला है और एटमी शक्ति के आविष्कार ने उसे समर्थ बना डाला है की वह उससे अपने को और शेष सबको स्वाहा कर डाले. आज एटमी शस्त्रों का इतना भंडार उसके पास है की वह भूमंडल पर समूचे जीवन को बारम्बार नष्ट कर सकता है. पर सृजन ? यह प्रश्न उससे अलग है. निर्माण मानव के वश का है और अद्भुत चमत्कारी निर्माण विज्ञानं के फलस्वरूप हम अपने चारों तरफ देखतें भी है . लेकिन परखनली के प्रयोग के बाद भी यह संदिग्ध ही बना हुआ है की शिशु सृष्टि विज्ञानं के द्वारा हो सकती है. मैं मानता हूँ की और सब कुछ संभव है पर जीवन सृष्टि संभव नहीं है.
अहिंसा और हिंसा का द्वन्द :: अंतर्राष्ट्रीय स्तर के ख्यातिप्राप्त संत आचार्य रजनीश ने कहा था-हमने आदमी को वैज्ञानिक ढंग से पैदा करने के बारे में सोचा ही नहीं, अहिंसक आदमी विज्ञानं के जरिये पैदा किया जा सकता है-अहिंसा -अहिंसा सिखाने कि बहुत जरुरत नहीं है. विज्ञानं पर भगवानों को भी इस कदर भरोसा है तब वह अपने को सर्वशक्तिमान माने तो आश्चर्य क्या है.
अब आप सोचें- हिंसा कहाँ से? अमुक हार्मोन से- उसे कम कर दीजिये- हिंसा ख़त्म, बहुत सीधा नुस्खा है, पर अहिंसा नकार नहीं है इसलिए वह उतनी सीधी बात भी नहीं है. बधिया किया हुआ बैल ब्रह्मचारी नहीं हो गया. बस इतना हुआ कि वह हल के काम आ गया. अपनी गाड़ी में जोत लेना आसान हो गया. इसी तरह हार्मोन को कुचलकर, मारकर न कोई अहिंसक बन सकता है न ब्रह्मचारी. अब देखिये- युध्य का उपचार क्या है? निश्चय ही वह अहिंसा में है. विज्ञानं बराबर संहार कि भाषा में समाधान सुझाता रहा है. युध्य के रास्ते से मानव जाति समूचे इतिहास में से अपने लिए समाधान कि स्थिति खोजती आ रही है पर हर बार समाधान कि जगह नए युध्य कि सम्भावना उग आई दीखती है. पर हिंसा का अभाव अहिंसा नहीं है, युध्य की अक्षमता में युध्य कि समाप्ति नहीं है. निर्बल अहिंसक हो ही नहीं सकता. विज्ञानं मानता है कि बल होने के कारण ही युध्य है-बलहीनता में युध्य कि सम्भावना रहेगी ही नहीं. पर दर्शन में जीवन को बलहीनता कि भाषा में नहीं समझा जा सकता, इस दिशा में समाधान को खोजना या देखना नपुंसकता को ब्रह्मचर्य मान लेना है. अतः अहिंसा विज्ञानं से सिद्ध नहीं होगी. अहिंसा वह है जिसमे दुसरे को अपने निकट असिद्ध करना नहीं है बल्कि दुसरे में अपने को आहूत कर पाना है, उनके हितों में अपने को मिटा डालना है. विज्ञानं से यह चीज हासिल होने वाली नहीं अपितु यह है जिसको अपने लिए विज्ञानं को हासिल करना है.
चेतन और चेतना:: इस ब्रह्माण्ड में प्रतेक कण की संरचना एटम से हुई है . पत्थर का टुकड़ा, पेड़-पौधे, जिव-जंतु ,मनुष्य आदि सबकी संरचना एटमों से हुई है. पत्थर के टुकड़े में केवल पदार्थ है जबकि मनुष्य में पदार्थ और चेतना दोनों है. एटमों के संयोजन से किसी भी पदार्थ का कृत्रिम विधि से निर्माण किया जा सकता है- सरल हो या कठिन- यह हमारी सीमा है, सिधांत की सीमा नहीं है. परन्तु क्या यह भी संभव है की उस कृत्रिम पिंड में चेतना भी डाल दिया जाये?
वस्तुतः पदार्थ में व्यवस्था को जानना तथा पदार्थ के व्यवहार की खोज ही विज्ञानं है. पाश्चात्य दर्शन इन्द्रियवान को चेतन मानता है जबकि भारतीय दर्शन में चेतन वह है जो निर्विकार होता है, जिसे किसी इन्द्रिय या यन्त्र से जाना नहीं जा सकता, क्योंकि वह द्रष्टा है , देखने वाला है, दृश्य नहीं बना करता. चेतना (आतंरिक जगत )में किसी प्रकार की व्यवस्था है? पदार्थ में चेतना कैसे प्रविष्ट होती है तथा मृत्यु के पश्चात इस चेतना का कोई स्वरुप है या नहीं ? इन प्रश्नों का उत्तर पाना ही दर्शन है. अतः यदि एटमों के जोड़-तोड़ से ही प्रत्येक पदार्थ बना और चेतना भी पदार्थों में ही है तो उस संपूर्ण जगत की व्यवस्था का अध्ययन तभी संपूर्ण माना जायेगा जब हम पदार्थ और चेतना दोनों में सत्य को जानने का प्रयास करे. विज्ञानी पदार्थ जगत के सिधान्तों को जानने की जिज्ञासा करता है. दर्शन का उद्देश्य है चेतना में निहित व्यवस्था की जिज्ञासा. भगवन बुद्ध को इन्ही प्रश्नों ने उद्वेलित कर दिया था तथा इसी व्यवस्था को समझने के लिए राजपाट छोड़कर तपस्या का मार्ग अपनाया था.
अंतःकरण से सम्बंधित प्राचल या पैरामीटर का आकलन क्या विज्ञानं कर सकता है ? क्या इसका आंकिक आकलन संभव है की अमुक व्यक्ति में द्वेष का अंश पचीस प्रतिशत है तथा अन्य किसी में पचास प्रतिशत. क्षमाशीलता को अंकों के आकड़ों से प्रस्तुत नहीं किया जा सकता. अतः दर्शन का ज्ञान देने वालों में किसी सत्य को निरपेक्ष सत्य मान लेने की प्रवृति होती है.
  1. अब जरा जीवन अनुभूति को ले. दुःख के पलों में समय काटे नहीं कटता जबकि सुख के पलों में इसी समय के व्यतीत होने का भान तक नहीं होता- यह क्या है ? जबकि दोनों स्थितियों में समय अपनी गति से चल रहा है- यहाँ आकर विज्ञानं की सीमा समाप्त हो जाती है. अतः कह सकते है की विज्ञानं मात्र भौतिक जगत का एक अर्धसत्य है - पूर्ण सत्य नहीं है.

मंगलवार, 8 जून 2010

granth-chintan

पूरी सृष्टि  तीन गुरों   से युक्त है अतः सृष्टि  की प्रत्येक वस्तु विचित्र लगती है. मनुष्य का सब प्रयत्न दुःख मिटाकर सुख प्राप्त करने का है लेकिन यह सुख जिसके लिए प्रयत्न किया जा रहा है वह तीन रूपों में प्राप्त किया जा सकता है. जैसे बहुत कम विद्यार्थी होतें है जिनकी पढाई में रूचि होती है अधिकांश को विवश होकर पढना पड़ता है. कोई मजदूर ख़ुशी से परिश्रम नहीं करना चाहता, किसी विवशता से परिश्रम करता है लेकिन पढाई पूरी होने पर जो योग्यता प्राप्त होती है या मजदूर श्रम करके जो मजदूरी प्राप्त करता है वह उनके लिए अमृत के समान है. यह तो सामान्य उदाहरण है . वस्तुतः जिस प्रयत्न से मन और बुद्धि  निर्मल होती है , उस प्रयत्न का आनंद अमृत के समान स्थाई, सुख देने वाला है. यही सात्विक सुख है. 
विषयों का इन्द्रियों के साथ संयोग होने पर जो पहले अमृत के समान लगता है वह बाद में विष के समान हो जाता है. यह सुख राजसी है. प्रिय शब्द, स्पर्श,रूप, रस या गंध इनको प्राप्त करके आपको बहुत सुख होता है, पर आप जानते है की इनके उपयोग के साथ कई रोग जुड़ें हुए हैं. भोग आतंरिक शक्तिं को, शरीर को विकृत करते है.
जो चित्त में विकार शक्ति को नहीं रहने देते जैसे निद्रा, आलस्य या प्रभाव को प्राप्त करने वाले सुख, तामसी सुख है. आज जितने भी उपाय समय काटने के लिए प्रचलित है और मनोरंजन के साधनों से भी ९० प्रतिशत से अधिक इस तामसी सुख को ही देने वाले है.
राजसी सुख भोग का सुख है. खाने-पीने का , आमोद-प्रमोद का जो सुख है वह तो थोडा बहुत सबको प्राप्त होता ही है. दूसरा राजसी सुख अहंकार का सुख है. कोई उपयोग नहीं है, लेकिन मेरा मकान इतना बड़ा,बैंक में मेरे पास इतने रूपये,मेरा प्रभाव इतना , इस प्रकार का जो अहंकार है,इस अहंकार में सुख नहीं है, ये तो आप नहीं कह सकते. इस सुख के पीछे ही समाज के अधिकांश लोग पागल हो रहे है. तीसरा राजसी सुख है क्रिया का सुख. आप रोज स्नान करते है-एक दिन स्नान करने को न मिले तो कितनी बेचैनी     होती है. यह बेचैनी  ही कहती है की स्नान करने से आपको सुख मिलता है.
तामसी सुख निद्रा और प्रमाद अर्थात समय काटने का सुख है. इसमें कोई उपयोगी काम नहीं किया जाता अपने समय को ताश,शतरंज  या गप्प आदि में व्यतीत किया जाता है. इसमें जो सुख है उसे आप अस्वीकार नहीं कर सकते. लेकिन तामसी सुख का सबसे निकृष्ट रूप है अधर्म में सुख. किसी को दुःख देकर, किसी को अपमानित करके, किसी को हानि पहुंचाकर गर्व करने वाले ,सुखी होने वाले लोग आप के आस-पास होंगे - आपने उन्हें देखा होगा.इनका यह सुख तो है ही, यह सुख तामसी है.
तामसी सुखों में से आवश्यक निद्रा को छोड़कर बाकि प्रमाद और अधर्म के सुखों को त्याग देना चाहिए. राजसी सुखों में से भोग को समाप्त कर देना चाहिए, अहंकार के सुख को भी छोड़ देना चाहिए और क्रिया से होने वाले सुख को , यदि क्रिया उचित है तो आप बनाये रख सकते है. सात्विक सुखों में से कोई छोड़ने योग्य नहीं है अपितु उसे बढ़ाते रहना चाहिए.

बुधवार, 2 जून 2010

karm tatha karmyog ke adhikari

किसी भी कर्म का कौन अधिकारी हो सकता है -यह तय करना पड़ता है, उसके अधिकार का निर्णय लेना पड़ता है. यदि आप नौकर रखना चाहतें हैं तो आप अवश्य जानना चाहेंगे की उसमे उस काम की योग्यता  है की नहीं- अगर आप को यह मालूम हो जाये की जो व्यक्ति नौकर की सेवा करने आप के यहाँ आया है वह चोर है, अनाचारी है, शराबी है तो क्या आप उसे रखना पसंद करेंगे? सेना में जिन लोगों की भरती की जाती है उनमे शारीरिक योग्यता देखी जाती है. वहां भी अधिकारी का निर्णय होता है की जिस काम के लिए वह लिया जा रहा है  उसे पूरा करने की क्षमता उसके शरीर में है की नहीं. इस  तरह कोई भी लौकिक कार्य नहीं है जिसमे अधिकारी का निर्णय आवश्यक न होता हो. प्रत्येक व्यक्ति प्रत्येक कार्य कर सके , ऐसा नहीं है. एक ही व्यक्ति में अनेक कामों की योग्यता हो सकती है , किन्तु सब कामों की योग्यता हो जाएगी-यह संभव नहीं है और क्योंकि यह संभव नहीं है अतः काम के अनुसार अधिकारी छाटना ही पड़ता है.
जो भी चाहे सामाजिक कार्य करने लगे, जिसका जी चाहे वह नेता बन जाये-यह बात आजकल सामान्य हो गयी है पर इसके कारण समाज की हानि ही हुई है क्योंकि व्यक्ति का व्यक्तित्व जितना व्यापक होता जाता है उसके दोष उतने ही अधिक समाज में व्यापक होतें है उनके गुण उतने तेजी से नहीं फैलते क्योंकि लोकरुचि सत्प्रवित्ति  को देर से ग्रहण करने की है. इसमे लोकरुचि का दोष नहीं है यह प्रकृति का ही स्वभाव है की प्रत्येक वस्तु को बनाने में, उठाने में बहुत परिश्रम करना पड़ता है किन्तु बिगाड़ने  में, गिराने में थोड़े परिश्रम की आवश्यकता होती है. आप किसी वस्तु  को उपेक्षित कर दे, उसे बनाये या स्वच्छ  करने का प्रयत्न न करे तो बिना किसी प्रयत्न के वह वस्तु   मलिन होती रहेगी, बिगडती रहेगी. वह भवन हो, उद्यान हो, मशीन  कुछ भी हो, उसकी सुरक्षा के लिए प्रयत्न करना पड़ता है. वह प्रयत्न छोड़ दिया जाये तो वह अपने आप नष्ट होती जाएगी.


कर्मयोग के अधिकारी का जब चुनाव करना पड़ता है तो पहली शर्त है की वह व्यक्ति निस्वार्थ  हो.  अपने लिए उसे कोई पद, पदार्थ या प्रशंशा अभीष्ट न हो. क्या मिलता है की जगह वह क्या चाहता है, केवल इतना ही नहीं, कष्ट, श्रम , तिरस्कार, विफलता- इनको बहुत बड़ी सीमा तक सहने को प्रस्तुत होना चाहिए. इनमें से कुछ मिलने पर अविचलित रह सके, इतना धैर्य ,इतनी शक्ति उसमें होनी चाहिए. वह जिस कर्म में लगा है, उस कर्म से उसे कोई निंदा , कौई अपमान, कोई कष्ट नहीं हटा सके, तभी वह कर्मयोगी बन पायेगा.

सोमवार, 17 मई 2010

ज्ञान,विज्ञानं और ज्ञानी

विज्ञानं का अर्थ होता है विशेष का ज्ञान। ज्ञान निर्विकल्प और अखंड है, निर्विशेष और निर्विकार है,किन्तु विज्ञानं संसार में जो विशिष्ट विशेषताएं है उन सबको अपना विषय बनाता है। लेकिन जितने व्यावहारिक ज्ञान हैं वे अनुभवजन्य हो या पुस्तकीय हो, सबका सब विज्ञानं है।
आज विज्ञानं शब्द भोतिक तत्वों के प्रयोगात्मक ज्ञान के अर्थ में रूढ़ हो गया है। संपूर्ण जगत में सब प्रकार के व्यावहारिक ज्ञान को विज्ञानं शब्द के भीतर ही माना गया है.क्योंकि विविधता का ज्ञान -विशेषता का ज्ञान ये दोनों विज्ञानं ही हैं। विविधता तथा विशेषता का ज्ञान इसलिए आवश्यक है की व्यव्हार में व्यावहारिक प्रवित्ति को ठीक ठीक समझा जा सके। जैसे नासमझी से जो वैराग उत्पन्न होता है वह ठीक नहीं होता। वह किसी छन खंडित हो सकता है। जैसे तीव्र प्रकाश आँखों को अस्त-व्यस्त कर देता है चकाचौंध उतपन्न कर देता है और उसमें कुछ दीख नहीं पड़ता। लेकिन पहले से पता हो की तीव्र प्रकाश होने वाला है तब आप अपनी आँख की सुरक्षा कर लेते है और उस प्रकाश में भी देख सकते है। इसी प्रकार विविधता और विशेषता का ज्ञान न हो तो उसमे कभी भी कोई ऐसी विशेषता सामने आ सकती है जो व्यक्ति के विवेक को चकाचौंध में डालकर उसे अस्थिर बना दे, विचलित कर दे, इसलिए विविधता और विशेषता आपको जानना ही चाहिए।
यह असंभव है की आप या मैं सृष्टि की सारी विशेषता और विविधता को जान ले, किन्तु इन विविधतावों , एवं विशेशातावों में कुछ सामान्य नियम होतें है। जैसे हम नहीं जान सकते की सृष्टि में कितने भोज्य पदार्थ है पर यह जान सकते है की कोई भी भोज्य पदार्थ है जिब्हा पर उसका अनुभव रसों से ही किसी विशेष ढंग का होगा। प्रतेक भोज्य पदार्थ शरीर पर किस प्रकार का प्रभाव डाल सकता है यह भी हम जान सकते है। विज्ञानं का अर्थ सृष्टि की सब विविधातावों -विशेश्तावों को जान लेना नहीं है क्योंकि व्यक्ति विशेष के लिए इनको जान लेना संभव ही नहीं है। लेकिन जैसे भोजन के सम्बन्ध में सामान्य ज्ञान एक समझदार व्यक्ति जान लेता है उसी प्रकार सृष्टि की विविधातावों और विशेश्तावों का सामान्य रूप, सामान्य प्रभाव हम जान सकते है। इसी जानने का नाम विज्ञानं है।
ज्ञान चूँकि निर्विशेष है, अखंड है, आत्मा का स्वरुप है अतः विविध नहीं होता-दो ही स्थितियां है कोई ज्ञानी है या अज्ञानी। ज्ञानी छोटा-बड़ा नहीं होता। यह बडापन केवल ज्ञानी के बाहरी व्यव्हार को देखकर होता है। ज्ञान के साथ उसमे जो विज्ञानं है उसी में छोटा-बडापन होता है। सृष्टि की विविधता और विशेषता का कम या अधिक ज्ञान सभी को हो सकता है। संपूर्ण ज्ञान तो ईश्वर के अतिरिक्त और किसी को हो ही नहीं सकता.

गुरुवार, 6 मई 2010

अंतर्मुखता

मनुष्य के उत्थान के लिए जितने भी साधन हैं वे सभी व्यक्ति को अंतर्मुख करते है। सत्पुरुष, व्यक्ति को बहिर्मुख नहीं करता। अंतर्मुख और बहिर्मुख-बाहर और भीतर-इसका अर्थ घर में और बाहर नहीं है। त्वचा से आच्छादित हमारा या आपका जो शरीर है वह भी घर ही है। इस त्वचा के भीतर जो कुछ भी है वह कोई बहुत पवित्र नहीं है क्योंकि भीतर हड्डी, मांस, रक्त,यही सब है और इसमे से कोई भी ऐसा नहीं है जो शरीर के बाहर हो तो आप उसे छूना पसंद करेंगे। अतः अंतर्मुखता का अर्थ शरीर के भीतर नहीं।

अंतर्मुखता का अर्थ है मन और उससे भी बड़ा जो चेतन है उसकी ओर उन्मुख होना और बहिर्मुखता का अर्थ है शरीर और संसार के राग-द्वेष में प्रवित्त होना। जैसे आप आराधना करते है-पूजा करतें है -हालाँकि यह व्यवहार शरीर के बाहर होता है पर यह व्यवहार आपको किसी सांसारिक व्यापार में नहीं लगाता बल्कि आपको अपने अंतःकरण में एकाग्र होने की प्रेरणा देता है इसलिए बाहर होने वाला काम होने पर भी यह अंतर्मुख करने वाला है परन्तु जब आप कमरे में बैठकर अपना बैंक बैलेंस जोड़तें है, अपने मित्र या शत्रु का चिंतन करतें है, भले ही इस चिंतन के समय आपको अपने शरीर की याद न हो, भूख प्यास भूलकर ध्यानस्थ हों-पर उस समय आप बहिर्मुख है क्योंकि उस समय आप अपनी आसक्ति, अपने राग या द्वेष को दुहरातें है।

जीवन की सच्ची उपलब्धि और उसका विकास अंतर्मुखता में है। संपत्ति, सम्मान, वैभव, प्रतिष्ठा एकत्र करने के प्रयत्न से बचते हुए मन और चेतन की ओर हमें उन्मुख होना चाहिए.

शुक्रवार, 23 अप्रैल 2010

कर्म और भाग्य

आप जितने भी कर्म करतें हैं उसके पांच कारण होते हैं -पहला अधिष्ठान-जिस आधार में कर्म को होना है-वह आधार उस कर्म के कितने अनुकूल है, इस पर कर्म की सफलता-विफलता निर्भर है। दूसरा-उस कर्म को करने वाला-उसका कर्ता कितना उद्योगी है। तीसरा-जो कर्म होना है, उसको सम्पन्न करने के लिए जिन उपकरणों का उपयोग होना है वे कितने ठीक हैं। चौथा -कर्म के करने में जितनी क्रियाएं होनी है वे सब कितनी ठीक-ठीक की गयीं। और पांचवां अंतिम है भाग्य। प्रथम चार बातें उपयुक्त है-इन चारों के सही होने के बाद भी यदि कर्म ठीक-ठीक सम्पन्न न हो तब कहना चाहिए-भाग्य या प्रारब्ध अनुकूल नहीं है। व्यक्ति सब दोषों को भाग्य मान लेता है।

अनेक बार हमारे कर्म हमारी योग्यता के कारण सफल या असफल नहीं होते। आप संसार में बहुत अयोग्य व्यक्ति को, सफल,सम्पन्न और उच्च पदस्थ देख सकतें है। बहुत योग्यतम व्यक्ति विफल, विपन्न मिलतें है। अगर व्यक्ति की योग्यता ही सब कुछ करती होती तो ऐसा नहीं होता।

अनेक बार परिस्थिति ही नहीं, वह आधार इतना सहायक हो जाता है,जहाँ काम होना है की केवल उसके कारण सफलता या विफलता मिल जाती है। अनेक बार हम जिस काम को करने लगते है, हमारे उपकरण उसे ठीक-ठीक-करने में समर्थ नहीं होते, हमारे औजारों में ही दोष है अतः आधार ठीक होने पर भी,हमारे कर्तृव्य में दोष न होने पर भी और हमारी कार्य पद्यति ठीक होने पर bhi hamein सफलता नहीं मिलती। आधार भी ठीक है, कर्ता भी ठीक है और उपकरण भी ठीक है जीतनें औजारों का उपयोग करके जो क्रिया जैसी की jaani चाहिए वैसी नहीं की जाय तो? आप समझ सकतें है की बहुत योग्य ड्राईवर शराब पिए हुए हो और गाड़ी चलाने की क्रिया ठीक न करे, तब विफल होना अनिवार्य हो जाता है। अतः जब चारों बातें ठीक हों, पूरा प्रयत्न किया जाये तब भी सफलता न मिले तब कहना चाहिए -भाग्य अनुकूल नहीं है। अब प्रारब्ध बाधक है और जब तक इन चारों क्रियायों में दोष है तब तक दोष भाग्य को नहीं दिया जाना चाहिए।

इन सबका तात्पर्य यह है की सभी कर्म केवल हमारे-आपके प्रयत्न से सफल नहीं होतें इसलिए कर्म के करने का अहंकार अपने उपर लेकर उस भार को उठाना बुद्धिमानी नहीं है.

गुरुवार, 8 अप्रैल 2010

व्यसन का त्याग

व्यसन का अर्थ है ऐसी वस्तु या क्रिया जो आपको अपने वश में कर ले जिसे सेवन करने के लिए आप विवश हों । व्यसन का अर्थ क्रिया भी है जैसे जुआ खेलना व्यसन है-जुआरी जुए के बिना नहीं रह सकता। सब व्यसन बुरे नहीं होते- जो बुरे नहीं हैं उसे व्यसन नहीं अपितु अभ्यास कहा जाता है। इस अभ्यास और व्यसन में एक अंतर है। व्यसन आपकी चेतना को समाप्त कर देता है जबकि अभ्यास आपकी चेतना को परिष्कृत करता है आपकी मनुष्यता को निखारता है।
बहुत से लोगों को भ्रम होता है की किसी नशा विशेष के सेवन से हानि नहीं है बल्कि उससे शांति मिलती है, एकाग्रता आती है। यह भ्रम आज का नहीं है अपितु प्राचीन कल से ही चला आ रहा है। बात यह है की नशे के सेवन से जो ध्यान या एकाग्रता मिलती है-वह आपके स्वतंत्र प्रयास से नहीं मिलती अतः उसका अच्छा परिणाम आपको नहीं मिलता। जैसे निद्रा और समाधी में कोई अंतर नहीं है परन्तु खूब गंभीर निद्रा लेने पर भी आपको कोई मनोजय प्राप्त नहीं होता- अधिक से अधिक यही होगा की शारीरिक रूप से आप प्रफुल्ल नजर आयेगें- यह इसलिए की निद्रा व्यक्ति को विवशतः आती है और समाधी स्वतंत्रतापूर्वक आपके प्रयत्न से प्राप्त होती है। इसी प्रकार किसी भी नशे के सेवन से जो मानसिक स्थिति आपको प्राप्त होती है वह आपका प्रयत्न नहीं है , नशा का प्रभाव है। नशा का प्रभाव दूर होने पर आप एक अवसाद का अनुभव करते है। ऐसा न होता तो क्लोरोफोर्म से प्राप्त बेहोशी समाधी कही जाती। मादक पदार्थों का जो लोग सेवन करते है उनमें ये सब लक्षण आपको मिलेगें।
आज चाय, तम्बाकू, गुटका, पान -मसाला बहुत व्यापक व्यसन हो गएँ हैं क्योंकि ये आपको विवश करतें हैं। जैसे भूख लगने पर आप भोजन कर लेते हैं पर कोई विशेष व्यंजन ही खाई जाये इसके लिए विवश नहीं है-रोटी की जगह चावल खा लेने से भी भूख मिट जाएगी-पर चाय के स्थान पर कोई शरबत पीकर या गुटका की जगह इलाइची खा कर आप काम नहीं चला सकते। आज जो सामाजिक स्थिति है उसमें हम आप अनेक बातों के लिए विवश हैं फिर भी हमें व्यसन का त्याग करना ही चाहिए-हालाँकि इस त्याग के लिए आपको मानसिक और शारीरिक संघर्ष करना होगा। व्यसन त्याग आप आवश्यक मान ले तब आपकी मानसिक स्थिति ऐसी हो जाएगी की आप आवश्यक संघर्ष कर सकेगें, आवश्यक कष्ट उठा सकेगें। इससे व्यसन छुट सकेगा। अतः आप जीवन में कोई उच्च स्थिति या लक्ष्य प्राप्त करना चाहते है तो व्यसन त्याग अनिवार्य मान लें.

बुधवार, 24 मार्च 2010

आसक्ति से बचे

आप अपने जीवन को देखिये-कभी आपको कोई गाली दे देता है, आप उसकी उपेछा कर देते है-हालाँकि आपको दुःख होता है,पीड़ा होती है फिर भी आप उसकी उपेछा कर देते है या यों कहें कई बार उपेछा कर देते है। यदि कई बार उपेछा को ही आप स्थाई बना ले तो क्या कहना। अब आप अपने पिछाले जीवन को देंखे। बहुत कम ऐसा हुआ होगा की सुख आपको बिना छुए निकल गया हो, सम्मान, प्रशंशा, यश आपको स्पर्श न किया हो, आप उससे अप्रभावित रहे हो, जैसे आप अनेक बार अपमान की उपेछा कर देते है, सम्मान की उपेछा नहीं कर पाते है। इसका क्या मतलब? इसका अर्थ यह है की सुख, सम्मान, यश-इनको सह लेना दुःख, अपयश, अपमान को सह लेने की अपेछा अधिक कठिन है। इसलिए इसको सह लेने पर जोर देना चाहिए आपको।

आप जानते है मनुष्य को आसक्ति के कारन ही दुःख प्राप्त होता है। आप यह भी मानते है की संसार की स्थिति तथा संसार के पदार्थ समान रूप से हमेशा बने नहीं रह सकते। आप किसी व्यक्ति के साथ आसक्त है या पदार्थ के प्रति, पदार्थ नष्ट हो सकता है, व्यक्ति आपकी उपेछा कर सकता है आप से दूर जा सकता है। आप उसके सामीप्य का या पदार्थ के उपभोग का अवसर खो सकते है। आप ने देखा होगा की जो मनुष्य बहुत स्वादलोलुप होता है सम्पन्न है उसे स्वदिष्ट पदार्थों का आभाव कभी नहीं होता पर उनका पेट ख़राब हो जाता है फलतः उसे संयम करना पड़ता है उनकी इच्छा पूरी नहीं होती। मतलब यह है की संसार के विषय ऐसे नहीं है जो आपकी इच्छानुसार प्रचुर उपलब्ध हो और आप निर्बाध रूप से उसका उपभोग करते रहे। पदार्थ का आभाव हो सकता है, अपनी शक्ति का आभाव हो सकता है। व्यक्ति का वियोग हो सकता है- हम उसे छोरकर चले जा सकते है। यदि हममे कहीं भी आसक्ति होगी तो वह दुःख दिए बिना नहीं रह सकती। दुःख से छुटने का एकमात्र उपाय है आसक्ति से परहेज। अतः हम सभी को चाहिए की आसक्ति से बचने का हर संभव प्रयास करे तभी सुखी रह सकते है.

मंगलवार, 9 मार्च 2010

सुखी व्यक्ति कौन

संसार में आज सुखी व्यक्ति कौन है ? आप विचार कीजिये.परन्तु इसके पहले दुःख को देखिये-दुःख कहाँ से उत्पन्न होता है? जो हमको प्रिय है उसकी अप्राप्ति और जो अप्रिय है उसकी प्राप्ति-यही दुःख है। यह अप्रिय या प्रिय किसी न किसी इंद्रिय के माध्यम से हम तक पहुंचता है जैसे शब्द प्रिय या अप्रिय हो सकता है। इसी प्रकार दृश्य, स्पर्श, गंध आदि भी प्रिय या अप्रिय होता है। दुःख की उत्पत्ति ही इसके स्पर्श से होती है। अतः जो जागरूक है वे भोगों में रूचि नहीं लेते फलतः वह पदार्थ अपनी उपस्थिति से उनको सुख या दुःख नहीं देता।

संसार में करोड़ों स्त्री-पुरुष है जो अछे -बुरे सब प्रकार के है पर उनमे से जिनसे आपका पूर्व संपर्क न हो उनके द्वारा आपको कोई दुःख या सुख नहीं होता। सुख या दुःख तब होता है जब आप उनमे से किसी विषय में रूचि लेते है।
वावजूद इसके आप भोगों में रूचि ले या न ले फिर भी बहुत सी बातें, प्राकृतिक झटके आप तक आयेगें ही। जैसे आंधी आ गयी तो आप चाहें या न चाहें, रूचि ले या न ले, कुछ धूल आप तक भी पहुचेगी। इसी प्रकार आप चाहें या न चाहें आप का शारीर गन्दा होगा ही और उसे धोते रहना पड़ेगा। और अंतःकरण यानि मन शरीर का ही भाग है इसलिए प्रकृति की चलने वाली आंधी वहां तक भी पहुंचती है। यह आंधी काम और क्रोध है जिसके आने का पता आपको नहीं चलता अतः इसे रोकना असंभव है। जैसे मकान ऐसा बनाना संभव नहीं है की आंधी ,वायु न आवे यदि ऐसा मकान बने तो उसमे रहना संभव नहीं होगा अतः मकान में खिड़की रखनी ही पड़ेगी। आंधी आने पर उसको बंद किया जा सकता है लेकिन आंधी तो पूछकर नहीं आती अतः आंधी की धूल तो आएगी ही। इसी प्रकार मन में काम और क्रोध का वेग न आये यह संभव नहीं है क्योंकि ये दोनों आंधी है- ये व्यक्ति के कारण भी और समष्टि के कारण भी उठते है।

ये वेग स्थायी नहीं हैं आकर बने ही रहे ऐसा होता नहीं। संसार में कोई व्यक्ति ऐसा नहीं मिलेगा जो एक सप्ताह लगातार काम या क्रोध का वेग ढ़ोता रहे इसके पहले ही पागल हो जायेगा या मर जायेगा। इन वेगों को, शरीर से बाहर निकलने के पहले ही जो सह लेता है वही सुखी है। दुःख उसके समीप नहीं आएगा। वही संसार में सुखी व्यक्ति है.

मंगलवार, 2 मार्च 2010

समत्व की महिमा

जीवन में समता का बहुत ही महत्व है.आतंरिक और वाह्य समता दोनों प्रधान है और दोनों की महिमा महान है ।

पृथ्वी के समस्त जीवों में एक ही मिटटी ,पानी, अग्नि, वायु और आकाश रहतें है। आपकी श्वास कुते, हाथी, सांप आदि सबके सरीर में समान रूप से प्रवेश करती है और उन सबकी श्वास आपके भीतर आती है। दो जीवों के रक्त में कुछ ऐसा अंतर नहीं होता की डाक्टरी अंतर को छोड़कर आप उसमे कोई विशेष अंतर बता सकें। केवल बाहरी आकार को लेकर शरीर का अंतर किया जाता है यानि आकृति से। आकृति का अंतर वैसे ही है जैसे मिटटी के विभिन्न वर्तनों में होता है। यह अंतर व्यव्हार और योग्यता में होता है। समान व्यवहार सांप और कुत्ते के साथ नहीं हो सकता इसी तरह घड़े और दीपक का व्यवहार समान रूप से नहीं किया जा सकता क्योंकि दोनों की उपयोगिता पृथक है। अतः आकृति के अंतर को व्यवहार तक ही रहने देना चाहिए।

व्यवहार का एक आदर्श है-आत्मनः प्रतिकुलानी परेशां न समाचरेत- जो व्यवहार आपके साथ किया जाये और आपको बुरा लगे, वैसा व्यवहार आपको दुसरे के साथ नहीं करना चाहिए। इस सम्बन्ध में भी थोड़ी सावधानी आवश्यक है। इसका यह अर्थ नहीं की आपको मिर्च अच्छी लगती है तो आप सबके भोजन में मिर्च डालें। इसका अर्थ यह है की आप यह देखे की जैसे आप अपनी प्रिय वस्तु चाहते है, आपकी अपनी रूचि है वैसे दूसरों की भी अपनी रूचि है। आप जैसा सम्मान अपनी रूचि का चाहते है, दूसरों की रूचि का वैसा ही सम्मान करें।

व्यवहार में यह समता, जीवन में आपको सफल बनाती है, सम्मान देती है और लोकप्रिय बनाती है साथ ही आतंरिक दृष्टि से आपको सहिष्रू बनाती है क्योंकि समाज में यह संभव नहीं है की अपने संपर्क में आये लोगों के साथ हमारी रूचि का संघर्ष न हो। ऐसी स्थिति में सत्पुरुष वह है जो दूसरों की रूचि का सम्मान करता है। इस सहिश्रुता के कारन बहुत से साधनों का विकास होता है। इसीलिए कहा गया है की समता सद्गुणों की आधारशिला है।

समत्व का व्यवहार दुर्गुणों से मनुष्य को बचाता है। किसी का कोई दुर्गुण आपको सह्या नहीं अतः आपमें कोई दुर्गुण नहीं होने चाहिए। यहाँ तक की अपनी ही बात कहने, दूसरों की बात सुनने के लिए पर्याप्त धैर्य न होना - यह सब समत्व आते ही दूर हो जाता है। व्यवहार की समता आपको आतंरिक समत्व के लिए सक्षम बनाती है और व्यावहारिक जीवन को सुखी, सम्मानित बनाती है। अतः दोनों समाताओं की उपलब्धि पर विशेष ध्यान आपको रखना ही चाहिए.

मंगलवार, 16 फ़रवरी 2010

संशय से हानि

मनुष्य स्वयं अज्ञानी होता है इसके साथ यदि उसमे श्रद्धा नहीं है ,किसी की बात मानने के लिए तैयार नहीं है,जो कुछ बतलाया जाता है उसपर संदेह करता है.ऐसे संशय चित वाले को सुख और सफलता प्राप्त नहीं होती।
वर्तमान दौर में हर बात में संदेह करना सामान्य बात हो गयी है। लोग बड़े गर्व से कहते है मैं अन्धविश्वासी नहीं हूँ लेकिन आपको मालूम होना चाहिए की विश्वास या श्रद्धा सदा ही अंधी होती है। केवल विश्वास या श्रद्धा से वही बात कही जाती है जो अन्धविश्वास से क्योंकि जिस विषय में आपको जानकारी है वह तो आपका ज्ञान,अनुभव या अध्ययन है परन्तु जिस विषय में आपकी जानकारी नहीं है उस विषय के किसी बड़े या किसी पुस्तक की बात को सच मान लेने का नाम ही श्रद्धा या विश्वास है। बिना अपनी जानकारी के उस बात को सच मान लेना यह सदा से ही अंध है।
आप अपने चारों तरफ देखे-संसार का कोई भी काम श्रद्धा या विश्वास के बिना नहीं चलता.छोटे से छोटे व्यवहार में भी आपको विश्वास करना ही पड़ता है । आप विज्ञान को ही ले ले -विज्ञान का प्रत्येक विधार्थी अपने से पहले के वैज्ञानिकों की खोज मान लेता है-यह मान लेना श्रद्धा के सिवा क्या है?। यदि प्रत्येक विद्यार्थी या वैज्ञानिक खोज को आरम्भ से ही प्रयोग कर देखना चाहे तो विज्ञान हजारों साल पीछे चला जायेगा। व्यक्ति चाहे कितना ही बुद्धिमान हो अपने पूर्ववर्ती लोगों की खोजों पर भरोसा करके ही चलना पड़ता है। ये खोजें ठीक है ,उसे विश्वास करना पड़ता है भले ही इस श्रद्धा के लिए आपको बहुत सी पुस्तकें पढ़नी पड़ी हों-आपने प्रयोग करके तो देखा नहीं की यह ठीक है या नहीं। इसे और सरल तरीके से कहे तो आप जानते है की सायनाइड एक मारक विष है । यह कभी प्रयोग करके देखा है आपने? कभी किसी वैज्ञानिक ने प्रयोग किया होगा। वह वैज्ञानिक भी आपके सामने तो प्रयोग नहीं किया है पर हम सभी विश्वास करते है की सायनाइड बहुत तीव्र विष है। इसी विश्वास के कारन व्यवहार चलता है। यदि आप इस पर संदेह करके प्रयोग करेगें तो मृत्यु निश्चित है।
जो व्यक्ति अज्ञानी ही(प्रत्येक व्यक्ति बहुत सारे विषयों में अज्ञानी होता है) और अविश्वासी भी है, हर बात में संशय करता है तब इसके अतिरिक्त और क्या उपाय रह जाता है की उसे निरंतर असफलता मिले, दुःख मिले। अतः जो व्यक्ति हर जगह संदेह करने लगेगा उसका जीवन अशांत हो जायेगा और जीवन में असफल हो जायेगा.

बुधवार, 10 फ़रवरी 2010

परम-शांति

आज पूरा विश्व अस्थिरता के दौर से गुजर रहा है-यह अस्थिरता भौतिक तथा प्राकृतिक दोनों रूपों में है-अशांति फैली हुई है.हर राष्ट्र एक दुसरे से भयभीत है और इस भय मे शांति की बात चल रही है-बड़े बड़े आयोजन हो रहे है फिर भी शांति नहीं मिल पा रही है। यह अशांति जीवन के हर क्षेत्र मे विद्यमान है। परिवारों मे बहुत ऐसे कम भाग्यशाली परिवार हैं जिनमे शांति है नहीं तो पारस्परिक संघर्ष और कलह है.समाज के किसी क्षेत्र मे शांति नहीं है। इसको हम सभी मानते है की अशांति दुःख का कारन है-शांति के बिना सुख की कल्पना नहीं की जा सकती।

मनुष्य को दो प्रकार की चिंता होती है-वह अशांत रहता है-एक जो उसे प्राप्त नहीं है जिसकी उसे आवश्यकता प्रतीत हो रही है वह प्राप्त हो-दूसरी जो उसके पास है और उसके लिए आवश्यक लगती है,वह नष्ट न हो-इसे कहते है योग और क्षेम की चिता। योग का अर्थ है जो नहीं मिला है वह मिले औए क्षेम का अर्थ है जो मिला हुआ है वह सुरक्षित रहे। उपार्जन और सुरक्षा -इन दो अशांतियो मे ही मनुष्य का पूरा जीवन विभक्त है। यदि दोनों मे से कोई चिंता न करनी हो तो मनुष्य संपूर्ण निश्चिंत है और यह निश्चिंतता ही परम सुख है परम शांति है।

यह एक कटु सत्य है की भौतिक साधनों से अशांति को मिटाया नहीं जा सकता क्योंकि बाहरी समस्त अशांति परिस्थितियों के प्रयत्न की प्रेरणा से ही उत्पन्न होती है। व्यक्ति, समाज,संस्था,राष्ट्र आदि परिस्थितियों को ही बदलना चाहते है -इस बदलाव से शांति नहीं पाई जा सकती।

शांति बाहर से नहीं आएगी क्योंकि शांति वाह्य पदार्थ नहीं है-यह आतंरिक तत्त्व है इसलिए अपने भीतर से आएगी। आपको इस पर विचार करना चाहिए की इसे किस तरह प्राप्त किया जाये। आपको दुःख और सुख से निरपेक्ष होना होगा तभी यह शांति प्राप्त हो सकेगी.

गुरुवार, 4 फ़रवरी 2010

अप्रमाद

धार्मिक तथा अनेक ग्रंथों में प्रमाद को जीवन के लिए हानिकर बताया गया है-वस्तुतः प्रमाद है क्या? आप कहते है मै भूल गया-बात ध्यान में नहीं रही। इसी का नाम प्रमाद है और अर्थ है असावधानी.मनुष्य के लिए कुछ बातें आवश्यक है और कुछ अनावश्यक। जैसे उचित निद्रा जीवन के लिए आवश्यक है जितनी उपयुक्त निद्रा आपके स्वास्थ्य और शरीर की स्थिति को देखते हुए आवश्यक है उतनी निद्रा ली जानी चाहिए.आलस्य और प्रमाद अनावश्यक क्षेत्र है-इसमे आलस्य आपकी बुद्धि को आछन्न नहीं करता क्योकि आप जानते है पर आलस्य के कारन पड़े है किन्तु प्रमाद -यह व्यक्ति के बुद्धि को आच्न्न कर लेता है.असावधानी जान-बुझकर नहीं की जाती,हो जाती है-इसी असावधानी से बचना चाहिए।
जानवर पेट भरने या जीवन की थोड़ी बहुत आवश्यकता पूरा करने के अतिरिक्त अपना बाकि समय बैठकर,खड़े रहकर या सामान्य चेष्टा में काटता है। समय अकारण काटता है इसलिए पशु है। शारीरिक आवश्यकता से ऊपर उसके समक्ष कोई लक्ष्य नहीं है। हम भी इसी स्थिति को अपना ले यह बहुत दुःख की बात होगी। अतः प्रमाद में हमारी आसक्ति न हो । हमें सतत सावधान रहना चाहिए,जागरूक रहना चाहिए.

बुधवार, 27 जनवरी 2010

संकल्प बल

आपने धार्मिक ग्रंथों में शाप और वरदान के वृतांत पढ़े होंगे। आपने लक्षित किया होगा की शाप या वरदान देने वाले सभी तेजस्वी योगी पुरुष ही नहीं रहे हैं। इनमे राजा ,स्त्रिया और कहीं कहीं तो बालक भी हैं। उनके शाप या वरदान प्रभावशाली क्यों हो गए! और आज के युग में ये प्रभावशाली नहीं होते-क्यों!
शाप और वरदान के सफल होने के मूल में एक निश्चित सत्य है की आपके संकल्प में बल होना चाहिए। आपको अपने निश्च्य्य में,अपनी बात में विश्वास होना चाहिए की वह असफल नहीं होगी.आपने पढ़ा होगा की अनेक बार शाप देने वाले ने अनजान में किसी भूल से शाप दे दिया जो देना नहीं चाहता था-अतः वह कह देता है--अब तो बात कही जा चुकी--इस वाक्य का अर्थ है की उसे अपनी बात के सत्य होने में तनिक भी संदेह नहीं है - यह जो विश्वास है यही संकल्प को बलवान बनाता है। इसलिए आपका संकल्प सुनिश्चित होना चाहिए जबकि स्थिति यह है की व्यक्ति स्वयं अपने संकल्प पर स्थिर ही नहीं रहता--यह काम हम इस दिन इतने बजे करेंगे तब किसी बड़े कारण के हुए बिना कुछ बिलम्ब हो गया हो- यह उसके संकल्प को बलहीन बनाता है और जब व्यक्ति बराबर ऐसा करता है तब संकल्प बिज हिन् हो जाता है।
संकल्प बल कैसे प्राप्त किया जाये-आप बहुत छोटे स्तेर से इसका प्रयोग कर सकते है। कुछ महीने तक निश्चय कर लीजिये -मेरी दिनचर्या ऐसी रहेगी और बिना असाधारण कारन के परिचितों के लिए,परिवार के लिए,मित्रों के लिए इसे बदलिए मत। हालां की ऐसा करने में बहुत कठिनाई होगी ,बहुत लोग अप्रशन्न होंगे,बहुतों की उपेछा करनी होगी परन्तु इससे आपके संकल्प को बल मिलेगा। व्यक्ति किसी की बिना अपेछा किये कैसे अपने निश्चय पर अटल रहता है-यह आप समझ जायेगे और यदि इस निश्चय पर कुछ अधिक दिन आप जमे रहे तब आपकी प्रज्ञा स्थित होने लगेगी। यही प्रक्रिया है जिसके द्वारा संकल्प बलवान होता है और बलवान संकल्पशक्ति का शाप या वरदान व्यर्थ नहीं होता.

गुरुवार, 14 जनवरी 2010

सुगंधी दीजिये

आप यदि विवेकशील,स्वच्छ आचरण तथा परोपकारी व्यक्तित्व के धनि है तो मै आशा कर सकता हूँ की आप जिनसे मिलेगे,जिनके संपर्क में आयेगे उनको दुर्गंधी नहीं देगे। आप के जीवन में सुगंध होना चाहिए। आप जहाँ बैठे,जहाँ रहें,जिनसे मिलें उनको सुगंधी दीजिये।
इस सुगंध का मतलब इत्र या स्सेंट नहीं है-इसका अर्थ है सद्गुणों की सुगंध.आप किसी को जीवन में संयम की बात कहते है, कुछ सार्थक बातें बतलातें है तो उसे जीवन के लिए सुगंध प्राप्त होगी। यह सुगंध आप बिना अतिरिक्त श्रम किये,बिना अतिरिक्त व्यय किये सबको देते रह सकते है।
मनुष्य का जीवन इस युग में बहुत व्यस्त है.अपनी परिस्थिति से वह क्लांत,छुब्ध रहता है उसे जो मिलता है एसा ही व्यव्हार करता है जिससे उसकी खीझ बढे। आप का कोई काम हो जाये और करने वाले को यदि धन्यवाद कह देते है तो आपका कुछ बिगरतानहीं किन्तु उसे एक प्रशन्नता होती है। आपने कभी स्टेशन पर कुली को सामान ठीक जगह पर रखने के पश्चात ठीक पैसा देकर धन्यवाद कहा है? कहकर देखिये। यह संसार को सुगंधी देना है। दूसरों को सुख-सुविधा और सात्विकता आदि देने का प्रयत्न आपमें है तो आप सर्व भुत हिते रताः सिधांत की और आगे बढ़ेगे।
हमारे जीवन में बहुत सी बातें प्रमाद के कारन उत्पन्न होती है। आप सावधान रहे तो दूसरों को शारीरिक,मानसिक किसी प्रकार की असावधानी ,दुर्गन्ध देने से सरलतापूर्वक बच सकते है, आपका जीवन सद्गुणों से भरा होना चाहिए। इस प्रकार आपके पास सद्गुणों की सुगंधी हो तब आप विश्व को देते रह सकते हैं.

गुरुवार, 7 जनवरी 2010

जीवन-निर्माण

आप कैसा जीवन चाहते है जब तक आप निश्चय न कर लें आप जो भी प्रयत्न करेंगे वह शायद ही सफल होगा। लोग अन्धानुकरण करते है दूसरों को देखकर अपने बारे में वैसा ही चाहते है। क्या आपने कभी चिन्तन किया है की आप अपना जीवन कैसा चाहते है। जीवन में आपको क्या-क्या उपलब्धियां चाहिए-आपको खुद सोचना होगा।
जीवन का निर्माण योजनापूर्वक होता है। आप एक मकान बनाते है.कोई कारखाना खोलते है तो आप योजना बनाते है पश्चात उस विषय के विशेषज्ञ को फ़ीस देकर उसकी सेवाएं लेते है। यह मकान या कारखाना तो आपका जीवन नहीं है बल्कि जीवन का एक अंग है। तो क्या इस प्रकार आपने अपने जीवन निर्माण की कोई योजना बनाई है? यदि बनाना है तो जीवन निर्माण के विशेषज्ञों की सेवाएं लेने की जरुरत होगी की नहीं? जीवन में आप क्या प्राप्त करना चाहते है आप अपने आप से इमानदारी से पूछिए। मकान ,कार ,पद,प्रतिष्ठा,संपत्ति-ये सब लक्ष्य नहीं होते बल्कि ये किसी दूसरी वस्तु को पाने का साधन होते है-इन सबको प्राप्त कर के भी आप अपना जीवन निर्माण नहीं कर सकते।
जीवन का निर्माण आपको अपने लिए ही नहीं चाहिए। आपको अपने सुह्रिद्यो के लिए,अपने बच्चों के लिए,अपने सम्बन्धियों के लिए भी चाहिए। अतः आप अपना जीवन निर्माण अच्छी तरह करके अपने आचरण में लायें-अपने जीवन में उतारें इससे यह होगा की जो आप के समीप है उनपर आपके आचरण का प्रभाव इतना पड़ेगा जितना आपके उपदेश और आपके दबाव का नहीं पड़ेगा.